________________
१३२
नागरीप्रचारिणी पत्रिका शिक्षा देते थे। बृहन्नला नामधारी अर्जुन ने मत्स्य-नरेश विराट की पुत्री उत्तरा और उसकी सखियों को गायन, वादन तथा नृत्य सिखाया था' !
जिस प्रकार ब्रह्मचारियों के पाठ्य-क्रम के तीन भेद थे उसी प्रकार ब्रह्मचारिणियों के भी तीन भेद अवश्य रहे होंगे। एक. वे जिनका, साधारण शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात. विवाह होता था। दूसरी वे जो ऊँची शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होती थीं। इनके अतिरिक्त तीसरी श्रेणी की वे ब्रह्मचारिणियाँ होती थीं जिनका, चिरकाल तक सांगोपांग वेद-शास्त्र तथा दर्शन आदि अध्ययन कर लेने के उपरांत, विवाह होता था। इनमें से भी अनेक आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके तपश्चर्या द्वारा जीवन व्यतीत करती थीं। इस प्रकार उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली महिलाओं को ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।
भारतवर्ष ने सदा से ही धर्म को प्रधानता दी है। अध्ययन में ब्रह्म-परायणता मुख्य मानी जाती थी। चाहे कोई किसी भी विषय का विद्वान् क्यों न हो उसके लिये ब्रह्मविद्या आवश्यक थी। ब्रह्मविद्या में ही सब विद्याओं का समावेश समझा जाता था। इसी लिये तो केवल ब्रह्म-परायण विद्वानों को हो नहीं वरन् कृषि, संगीत, नाटक, चिकित्सा आदि भिन्न भिन्न विषयों के पारद्रष्टा विद्वानों को भी ऋषि तथा मुनि की उपाधि दी जाती थी। चिकित्साशास्त्र के परम विद्वान् चरक, सुश्रुत, अश्विनीकुमार तथा धन्वन्तरि प्रादि ऋषि कहलाते थे। संगीताचार्य नारद मुनि थे। नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत भी मुनि कहलाते थे। इतना ही नहीं वरन् काम-शास्त्र के रचयिता वात्स्यायन भी ऋषि थे। किसी समय योरप में
{1) महाभारत-विराटपर्ष, ८-१०, १४ । (२) मनुस्मृति, ३-२ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com