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नागरीप्रचारिणी पत्रिका वर से विवाह करना पिता का परम कर्तव्य था। इसी लिये तो मनु ने कहा था-'पिता रक्षति कौमारे'।
पिता अपनी पुत्री की शिक्षा के लिये उतना ही चिंतित रहता था जितना पुत्र के विषय में। आर्यावर्त आदिकाल से हो शौर्य तथा ज्ञान-प्रधान देश रहा है। माता-पिता अपनी संतान को इन गुणों से सुशोभित करने का प्रयत्न किया करते थे। प्राचीन आर्यसाहित्य में पुत्रियों के लिये दो प्रकार का शिक्षा-क्रम देखने में आता है। एक क्रम को पूरा करनेवाली सद्योद्वाहा कहलाती थीं और दूसरे क्रम के अनुसार शिक्षा पानेवाली ब्रह्मवादिनी' । इन दोनों प्रकार की पुत्रियों के लिये पाठ्य-क्रम पृथक पृथक होते थे।
सद्योद्वाहा वे होती थीं जिनका साधारण शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् विवाह हो जाया करता था। उन्हें प्राय: सुयोग्य गृहिणो, सुयोग्य पत्नी तथा सुयोग्य माता बनने की हो शिक्षा दो जाती थी। गृहस्थ-संबंधी सब ज्ञान उन्हें करवाया जाता था। सद्योद्वाहा कन्याओं को तीन प्रकार की शिक्षा दी जाती थी-धार्मिक, पारिवारिक तथा सामाजिक। इस पाठ्यक्रम के अनुसार कन्याओं को लगभग आधुनिक मैट्रिक अथवा इंटरमीडिएट के बराबर तो योग्यता अवश्य हो जाती रही होगी। गृहस्थाश्रम में अनेक यज्ञों में उन्हें सम्मिलित होना पड़ता था; उन्हीं पर संध्या-वंदन, यज्ञ, पूजापाठ, व्रत-उपवास आदि का साराभार होता था। अत: उन्हें सच्छाखों का अध्ययन तथा मंत्रों का सस्वर उच्चारण करना विधिपूर्वक सिखाया जाता था । परिष्कृत, परिमार्जित तथा प्रांजल भाषा में अपने हार्दिक भावों का पत्र द्वारा प्रकटीकरण गृहिणियों का एक अलंकार माना जाता था। वे गद्य तथा पद्य लिखने में यथोचित
( )हारीत, २१-२०-२३ । (२) वात्स्यायन-सूत्र, २०, २५ ।
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