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________________ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय १२७ खंड खंड करि ब्रह्म को पख पख लीया (टि । दादू परण ब्रह्म तजि बंधे भरम की गाठि ॥ परंतु स्वयं इन अंशांशि भाववालों के अनुसार बात ऐसी नहीं है। वे भी इस बात की घोषणा करते हैं कि परमात्मा अखंड और पूर्ण है। जैसा प्राणनाथ कहते हैं, इश्क-जो सब संतो के लिये परमात्मा का ही दूसरा नाम है-अखंड, चिरंतन और नित्य है"इसक अखंड हमेशा नित्त"। जिस प्रकार समुद्र में की कुछ बूंदों के भाप बनकर उसमें से उड़ जाने से या कुछ और बूंदों के उसमें गिरकर मिल जाने से कुछ अंतर नहीं आता उसी प्रकार परमात्मा में भी जीवात्माओं के वियुक्त प्रस्वा संयुक्त होने से कोई अंतर नहीं आता। दो वस्तुएँ केवलावस्था में एक होकर ही एक नहीं कहलातों, एक समान होने से तथा एक में मिल जाने से भी एक कहलाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि उस ऐक्यावस्था से, चाहे वह किसी प्रकार का ऐक्य हो, आत्मा और परमात्मा वियुक्त कैसे होते हैं । शिवदयाल ने इस प्रश्न पर प्रकाश डालने के लिये सुरत और राधास्वामी के बीच एक संवाद कराया है। सुरत को इसका कारण समझाते हुए राधास्वामी कहते हैं "सुनो सुरत तुम अपना भेद । तुम हम 3 थीं सदा अभेद ॥ काल करी हम सेवा भारी । सेवा बस होय कुछ न विचारी ॥ तुमको मांगा हमसे उसने । सौंप दिया तुम्हें सेवा बस में ॥" सुरत-"सेवा बस तुम काल को, सौंप दिया जब मोहि । तो अब कौन भरोस है, फिर भी ऐसा होइ !" (1) 'बानी' (ज्ञानसागर ), पृ० ११० । (२) 'प्रेमपहेली', पृ० ५ ( खोज रिपोर्ट ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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