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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
देखने में तो उस मूल जलराशि में मिल गई हैं, परंतु फिर भी हम
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देख पावें चाहे न देख पावें, हैं तो वे वहाँ ही । मुक्त सुरत राधास्वामी के साथ सायुज्य-सुख भोगा करते हैं और अनंत काल तक उनकी शरण में विश्राम पाते हैं । धरनी ने भी निम्नांकित रूपक में यही बात कही है - "छुटी मजूरी, भए हजूरी साहिब के मनमाना' " ( इजूरी = हुजूर में रहनेवाला, दरबारी ) । प्रेम पहेली और तारतम्य के जो अवतरण नागरी प्रचारिणी सभा की दिल्ली की खाज ( अप्रकाशित ) में दिए हुए हैं, उनको पढ़ने से मालूम होता है कि प्राणनाथ के अनुसार मोक्ष उस चिद्रूप लीला में सम्मिलित होकर सहायक होने का सौभाग्य प्राप्त करना है, जिसमें 'ठाकुर' और 'ठकुराइन' अपने धाम में निरंतर निरत हैं। यह भी इसी बात का सूचक है कि अंत में भी प्राणनाथ जीवात्मा परमात्मा में स्पष्ट भेद मानते हैं
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इस प्रकार इस श्रेणी के संतों का मत है कि जीवात्मा की चरमावस्था परमात्मा के साथ सभेद मिलन है। अंत तक परमात्मा परमात्मा ही रहता है और जीव जीव ही; दोनों का भेद कभी नष्ट नहीं होता ।
कबीर सदृश अद्वैतवादी के मतानुसार यह मत भ्रामक है, क्योंकि यह पूर्ण ब्रह्म का प्रपूर्ण स्वरूप है । इसके अनुसार प्रखंड ब्रह्म या तो इतनी जीवात्माओं में विभाजित हो जाता है या परब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त और वस्तुओं ( जीवात्मा ) की भी सत्ता मान ली जाती है । और इस प्रकार प्रखंड पूर्ण ब्रह्म की अखंडता और पूर्णता व्यवधान में पड़ जाती है । अतएव उनके अनुसार ऐसे संतों की साधना अधूरी है। उन्हें अभी अपनी पूर्ण सत्ता का ज्ञान नहीं हुआ है, जैसा दादू ने कहा है
(१) 'बानी', पृ० १४ ।
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