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________________ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय १२५ न तो अद्वैतधारा के अंतर्गत आते हैं और न बाबालाल तथा नानक के अनुयायी हैं, अंश का अर्थ वस्तुत: अंश नहीं लेते, बल्कि अंश तुल्य। उनके लिये अंशाशि भाव केवल एक अनुपात की ओर संकेत करता है। परमात्मा के सामने जीव वैसा ही है जैसे समुद्र के सामने बूंद। जीवात्मा परमात्मा के एक लघु से लघु अंश के बराबर है। जीवात्मा के सम्मुख परमात्मा कितना बड़ा है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह जीव का स्वामी और भाग्यविधाता है। जीव परमात्मा न होकर परमात्मा का है। ___ इन दोनो मतों में जो भेद है वह उनके मुक्ति-संबंधी विचारां से और भी स्पष्ट हो जाता है। नानक और बाबालाल के अनुसार मोक्ष होने पर जीवात्मा परमात्मा में इस प्रकार घुल-मिल जाता है कि जीवात्मा की कोई अलग सत्ता ही नहीं रह जाती। दोनों में जरा भी भेद नहीं रहने पाता। परंतु शिवदयाल का दृष्टिकोण इससे बिलकुल भिन्न है। उनके मतानुसार मुक्ति होने पर सुरत (जीवात्मा) की अलग सत्ता बिलकुल नष्ट नहीं हो जातो, हाँ राधास्वामी (परमात्मा) के चरणों में उसे अनंत चिन्मय जीवन अवश्य प्राप्त हो जाता है। वे भी सुरत की उपमा बूंद से और राधास्वामी की सागर से देते हैं और इस तरह मोक्ष की प्राप्ति पर सिंधु और बूंद का मिलन मानते हैं। परंतु बूंद सिंधु में समाकर उसके साथ अभेद रूप से एक नहीं हो जाती। 'समाना' के स्थान पर उनके ग्रंथों में 'धंसना' क्रिया का भी प्रयोग हुआ है। धंसने का तात्पर्य है किसी वस्तु में प्रविष्ट होकर उसमें अपने लिये स्थान कर लेना। शिवदयालजी का मत यह मालूम होता है कि सागर में जलराशि का वह परिमाण जो भाप होकर कभी नहीं उड़ता राधास्वामी है और जो बूंदें प्रति पल उसमें से उड़ती तथा उसमें मिलती रहती हैं, वे सुरत हैं। ये बूदें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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