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नागरीप्रचारिणी पत्रिका पड़ा है। परंतु गंगाजल हमेशा गंगाजल रहेगा चाहे वह नदी में बहता हो अथवा घड़े में भरा हो' ।" इस प्रकार बाबालाल ने भो अंशांशि भाव को ही अपनाया था।
परंतु नानक का इस संबंध में क्या मत है, यह साफ साफ नहीं ज्ञात होता। आत्मा और परमात्मा को एक कर दुविधा के निवारण का उपदेश उन्होंने भी दिया है
श्रातमा दुवै रहै लिव लाई । ... ... श्रातमा परमातमा एको करै । अंतरि की दुविधा अंतरि मरै ॥
इसके साथ साथ जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि मुक्ति को सिख संप्रदायवाले 'निर्वाण' मानते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अंत में प्रात्मा और परमात्मा अभेद रूप से एक हो जाते हैं; किंतु यह विदित नहीं होता कि जब तक यह दुविधा 'मरती' नहीं तब तक भी आत्मा और परमात्मा में पूर्णाद्वैत भाव रहता है या नहीं। हाँ, उनकी सामान्य उक्तियों को तथा उनके भक्ति-भाव को देखने से यही समझ पड़ता है कि वे भी जीवात्मा और परमात्मा में, जब तक जीवात्मा जीवात्मा है, अंशांशि संबंध हो मानते हैं। जड़ सृष्टि के संबंध में उनकी सम्मति भी, जिसका प्रागे चलकर उल्लेख होगा, इसी बात को पुष्ट करती है।
परंतु शिवदयाल और बाबालाल के मतों का जो उल्लेख ऊपर किया गया है, उससे स्पष्ट है कि अंशांशि भाववालों में भी साहमत्य नहीं है। बाबालाल और नानक तो अंश का अर्थ वस्तुतः अंश लेते हैं। हाँ, इतनी विशिष्टता उस अंश में अवश्य होती है कि अंश में भी अंशी के सब गुण वर्तमान रहते हैं, यद्यपि कुछ परिमाण में। किंतु शिवदयाल और प्राय: अन्य सब संत, जो
(१) विल्सन-'हिंदू रिलिजस सेक्टस, पृ० ३५० । (२) 'प्रध', पृ० ३५७ ।
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