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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय १२१ जो मेरे जिउ दुइ जानत है। तो मोहि मुकति बतावा । एकमेक है रमि रह्या सबन मैं तो काहे को भरमावा ॥ तारन तिरन तब लग कहिए, जब लग तत्त न जाना।
एक राम देख्या सबहिन मैं, कहै कबीर मन माना ॥ इस गहन अनुभूति की झलक इस श्रेणी के संतो की वाणियों में यत्र-तत्र मिल जाती है, क्योंकि वे दाद के शब्दों में अपने ही अनुभव से इस बात को जानते थे कि
जब दिल मिला दयाल से, तब अंतर कछु नाहि ।
जब पाला पानी को मिला त्या हरिजन हरि माहि ॥ मात्मानंद में लीन दादू को सहज रूप पर-ब्रह्म को छोड़कर और कोई कहीं दिखलाई ही नहीं देता है
सदा लीन श्रानंद में, सहज रूप सब ठौर ।
दादू देखे एक को, दूजा नाहीं और ३ ॥ इसी स्वर में मलूकदास भी कहते हैं
साहब मिलि साहब भए, कछु रही न तमाई ।
कहैं मलूक तिस घर गए, जहँ पवन न जाई ॥ भीखा भी कहते हैं
भीखा केवल एक है, किरतिम भया अनंत । इस अद्वैतानंद की जगजीवनदास ने इस प्रकार उत्साहपूर्ण अभिव्यंजना की है
आनंद के सिंध में प्रान बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो । जब आपु में श्रापु समाय गए, तब श्रापु में श्रापु बह्यो अपना ॥ (१)क. प्र., पृ० १०१, १२। (२) सं. बा० सं०, भाग १, पृ. १२ । (३) बानी (ज्ञानसागर ), पृ० ४२-४३ । (४)सं० बा० सं०, भाग २, पृ० १०४ । (५) वही, भाग १, पृ. २१३ ।
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