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नागरीप्रचारिणी पत्रिका जो तर्क से द्वैत-सिद्धि करना चाहते हैं उनकी वे मोटो अक्ल मानते थे
"कहै कबीर तरक दुइ साधे, तिनकी मति है मोटो।" मुमुक्षु की दृष्टि से मोक्ष जीवात्मा का परमात्मा में घुल-मिलकर एकाकार हो जाना है। इस मिलन में भेद-ज्ञान जरा भी नहीं रहता। कबोर प्रादि संतो ने वेदांत का अनुसरण करते हुए इस मिलन को बूंद के सिंधु में, नमक के जल में तथा जल में रखे हुए घड़े के (घटाकाश दृष्टांत के अनुरूप) फूट जाने पर उसके भीतर के पानी के बाहर के पानी से मिल जाने के दृष्टांतों द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है। इन दृष्टांत से कोई यह न समझ ले कि इस मिलन में आत्मा को परमात्मा से कम महत्त्व दिया गया है। इसलिये कबीर ने बूंद और समुद्र का एक दूसरे में पूर्णतः मिल जाना कहा है
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ । बूंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाह ॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ ।
समुद समाना यूँद में, सो कत हेरया जाइ ॥ परंतु मुक्त पुरुष के दृष्टिकोण से मिलन का सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि कभी भेद तो था ही नहीं जिससे मुक्ति होने पर मिलन कहना संगत ठहरे। मोक्ष तो केवल दोनों की नित्य अद्वै. तता की अनुभूति मात्र है, जिससे अज्ञान का प्रावरण मनुष्य को वंचित रखता है। इसी लिये कबीर ने अपनी मुक्ति के संबंध में परमात्मा के प्रति ये उद्गार प्रकट किए थे
राम ! मोहि तारि कहाँ लै जैहौ। सो बैकुंठ कहौ धौ कैसा जो करि पसाव मोहि देही ॥
(.) क. ग्रं॰, पृ० १०५, ५४ । (२) वही, पृ० १७, ७, ३ और ४ ।
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