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नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रापको ब्रह्मेतर समझता है। प्रात्मतत्त्व को भूलकर वह पंचभूतों की ओर दृष्टि डालता है और उन्हीं में अपने वास्तविक स्वरूप की पूर्णता मानता है-सूधी ओर न देखई, देखै दर्पन पृष्ट' । यही देहाध्यास उसके भ्रम की जड़ है। जब व्यक्ति दृश्य आवरणों के भ्रम में न पड़कर, नाम और रूप को भेदकर, अपने अंतरतम में दृष्टि डालता है तब उसे मालूम होता है कि मैं तो वस्तुत: एक मात्र सत्तत्त्व हूँ। तब उसे विदित होता है कि किस प्रकार मैं अपने आपको भ्रम में डाले हुए था-सुंदर भ्रम थें दोय थे२-और उसे तत्काल अनुभव हो जाता है कि मैं पूर्ण ब्रह्म कंवल हूँ ही नहीं, बल्कि कभी उसके अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ था ही नहीं। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण ब्रह्म है। उसके इस तथ्य से अनभिज्ञ होने और उसकी अनुभूति न कर सकने से भी उसके वास्तविक स्वरूप में कोई अंतर नहीं पाता। वह जाने चाहे न जाने, पर ब्रह्म तो वह है ही। पांचभौतिक जगत् के बंधनों से मुक्त होने के लिए यही अपरोक्षानुभूति अपेक्षित है ।
संत-संप्रदाय के इन अद्वैती संतो ने इस सत्य को स्वयं अपने जीवन में अनुभूत कर लिया था। कबीर ने इस संबंध में अपने भाव बड़ी दृढ़ता तथा स्पष्टता के साथ व्यक्त किए हैं। प्रात्मा और परमात्मा की एकता में उनका अटल विश्वास था। इन दोनों में इतना भी भेद नहीं कि हम उन्हें एक ही मूल-वस्तु के दो पक्ष कह सकें। पूर्ण ब्रह्म के दो पक्ष हो ही नहीं सकते। दोनों सर्वथा एक हैं। अद्वैतता की इसी अनुभूति के कारण वे समस्त सृष्टि में अपने पापको देखते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दो में उद्घोषित किया था
(१) सुंदरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ. १० ।
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