________________
हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ११७ है, परंतु परमात्मा से अलग उनकी कोई सत्ता अथवा वास्तविकता नहीं। उसी की सत्ता में उनकी सत्ता है, उसी की वास्तविकता में उनको वास्तविकता, क्योंकि सबमें परमात्मा सार रूप से विद्यमान है। छोटे से छोटे जीव, तुच्छ से तुच्छ पदार्थ सबमें परब्रह्म का निवास है। कठिनाई केवल इतनी है कि जब तक हम इंद्रिय-ज्ञान पर प्राश्रित बुद्धि की माप से सब पदार्थों को मापने का प्रयत्न करते रहते हैं तब तक हम उनके अंतरतम में प्रवेश कर उनको पूर्ण रूप में नहीं समझ सकते।
परंतु इस कथन से सब संतों का एक ही अभिप्राय न होगा। हमें उनमें कम से कम तीन प्रकार की दार्शनिक विचार-धाराओं के स्पष्ट दर्शन होते हैं। वेदांत के पुराने मतों के नाम से यदि उनका निर्देश करें तो उन्हें अद्वैत, भेदाभेद और विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। पहली विचार-धारा को माननेवालों में कबीर प्रधान हैं। दादू, सुंदरदास, जगजीवनदास, भीखा और मलूक उनका अनुगमन करते हैं। नानक और उनके अनुयायी भेदाभेदी हैं और शिवदयालजी तथा उनके अनुयायी विशिष्टाद्वैती। प्राणनाथ, दरियाद्वय, दीन दरवेश, बुल्लेशाह इत्यादि शिवदयाल की हो श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
कबीर आदि अद्वैती विचार-धारावालों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के भीतर परमात्म तत्त्व पूर्ण रूप से विद्यमान है। रहस्य केवल इतना ही है कि वह इस बात को जानता नहीं है। इस बात का अनुभव उसे तभी हो सकता है, जब वह मन और सामान्य बुद्धि के क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है। मनुष्य (जीवात्मा) और परमात्मा में पूर्ण अद्वैत भाव है-दूर किया संदेह सब जीव ब्रह्म नहि भिन्न'। अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाने के कारण वह अपने
(१) सुदरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०७ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com