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________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक साधक अपूर्ण ही कहलाएगा, चाहे उसकी अपूर्णता सूक्ष्म हो अथवा स्थूल । यदि पूर्ण ब्रह्म-भावना पर बाह्यार्थ का आरोप किया जायगा तो वह अवश्य ही सारहीन होकर ऐसी अदार्शनिक प्रवृत्ति में बदल जायगी; यही यहाँ हुा भी है। कहना न होगा कि निरंजन, अलख, अगम, अनामी, सत्य आदि शब्दों को–जिन्हें पिछले संतो ने विभिन्न 'पुरुषो' का नाम मान लिया है-पहले के संतों ने परमतत्त्व या परमात्मा के विशेषण मानकर उसके पर्याय के रूप में ग्रहण किया है। विभिन्न लोक होने के बदले वे 'नेति नेति' प्रणाली के द्वारा पूर्ण पुरुष को ही देखने के विभिन्न दृष्टि-कोण हैं। निरंजन से भी ( अंजन अथवा माया से रहित ), जिसे पिछले संत काल-पुरुष का नाम मानते हैं, कबीर का अभिप्राय परमात्मा से ही था, यह इस पद से स्पष्ट होता है गोव्यंदे तू निरंजन, तू निरंजन, तू निरंजन राया। तेरे रूप नाही, रेख नाहीं मुद्रा नाहीं माया । तेरी गति तूही जाने कबीर तो सरना ॥ अभ्यास-मार्ग में उन्नति के सोपानों के रूप में इन पदों की चाहे जो सार्थकता मानी जाय, परंतु इसमें संदेह नहीं कि लोक अथवा पुरुष रूप में उनका कोई दार्शनिक महत्त्व नहीं। निर्गुण संतों को सर्वत्र परमात्मा ही के दर्शन होते हैं। यदि कोई पूछे कि “यदिसत्ता 'एक' ही की है तो अनेक के संबंध में क्या ४. परमात्मा, प्रात्मा और कहा जायगा ? क्या यह समस्त चराचर जड़ पदार्थ सृष्टि, जो इंद्रियों के लिये उस अलक्ष्य परमात्मा से भी वास्तविक है, मिथ्या है ? क्या उसका अस्तित्व नहीं ?" तो वे सब एक स्वर में उत्तर देंगे कि उनकी भी सत्ता है, वे भी वास्तविक (१)क० प्र०, पृ. १६२, २१६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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