________________
११५
हिंदो काव्य में निर्गुण संप्रदाय इस असंगत 'पर'-प्रवृत्ति का कारण यह है कि स्वामी रामा. नंदजी के सत्संग से प्राप्त जिन सूक्ष्म दार्शनिक विचारों का प्रचार कबीर ने किया था, कुछ काल उपरांत उनके तत्त्वार्थ को दर्शन-बुद्धि से समझना उनके अनुयायियों के लिये कठिन हो गया और वे अपने से पूर्ववर्ती संतो तथा अन्य धर्मावलंबियों के अनुभवों को अपने से नीचा ठहराने लगे। बौद्ध और सूफी भी आध्यात्मिक अभ्यास-मार्ग में उत्तरोत्तर प्रप्रसर आठ पद मानते हैं। संभवत: यह प्रवृत्ति इन्हीं के अनुकरण का फल है। परंतु बौद्धों और सूफियों में इन पदों की भावना विभिन्न पुरुषों और उनके विभिन्न लोकों के रूप में नहीं की गई है। किंतु केवल सोपान के रूप में । अभ्यास पक्ष में संतो ने भी ऐसा ही किया है किंतु इससे उनको लोक और पुरुष भी मानना संगत नहीं ठहराया जा सकता ।
एक स्थान पर शिवदयालजी ने राधास्वामी दयाल से कहलाया है कि अगम अलख और सत्य पुरुष में मेरा ही पूर्ण रूप है । यदि यह बात है तो यह कैसे माना जा सकता है कि इन रूपों को ग्रहण करने के लिये राधास्वामी को नीचे उतरना पड़ा है। जहाँ परमात्मा को एक पग भी नीचे उतरना पड़ा वहीं समझना चाहिए कि पूर्णता में कमी आ गई। साधक के पूर्ण आध्यात्मिकता में प्रवेश पाने में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्राएँ हो सकती हैं; परंतु निर्लेप परमतत्त्व में, जब तक वह निर्लेप परमतत्त्व है, न्यूनाधिक मात्राओं का विचार घट नहीं सकता। पूर्ण ब्रह्म की जब तक पूर्ण
(१) पिरथम अगम रूप मैं धारा । दूसर अलख पुरुष हुअा न्यारा ॥
तीसर सत्त पुरुष मैं भया । सत्तलोक मैं ही रचि लिया । इन तीनों में मेरा रूप । हाँ से उतरीं कला अनूप ॥ याँ तक निज कर मुझको जानो । पूरन रूप मुझे पहचाना ॥
--सारवचन, भाग १, पृ० ७५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com