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________________ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय १०६ ठीक हो नहीं सकता, परंतु नानक ने अपने समय की स्थिति के कारण, जिसका मैं उनके जीवन-वृत्त में उल्लेख कर आया हूँ, एकेश्वर अधिदेवता की ही भावना की ओर अधिक ध्यान दिया है। इसी लिये उन्होंने जपजी में कहा कि अगर परमात्मा का लेखा हो सकता है तो लिखा, परंतु लेखा तो नाशवान है, वह अविनाशी का कैसे वर्णन कर सकता है, नानक तू इस फेर में मत पड़, वह अपने को प्राप जानता है, तू केवल उसे बड़ा कह' । परंतु कुछ संत ऐसे भी हैं जो, जैसा आगे चलकर मालूम होगा, इस निर्विकल्प भावना तक पहुँच ही नहीं पाए हैं। जहाँ पर वे पूर्ण अद्वैत ब्रह्म का सा वर्णन करते हैं, वहाँ पर निर्विकल्प अवस्था के स्थान पर उनका अभिप्राय परमात्मा की अद्वितीय महत्ता से होता है। किंतु इसके विपरीत कबीर और कुछ अन्य संतों की ब्रह्म-भावना तो ऐसी सूक्ष्म है कि वे उसे 'एक' भी कहना नहीं चाहते। कोई वस्तु 'अनेक' के ही विरुद्ध 'एक' हो सकती है। परंतु ब्रह्म तो केवल है२, वह 'एक' कैसे हो सकता है ? कबीर ही के शब्दों में परमात्मा को एक कहना एक कहूँ तो है नहीं दोय कहूँ तो गारि । है जैसा तैसा रहै, कहै कबीर विचारि ॥ क्योंकि वह जैसा है वैसा, वही जान सकता है, हम तो इतना ही कह सकते हैं कि केवल वही है और कोई है ही नहीं । (.) लेखा होइ निखिए, लेखै होइ बिणास । नानक बड़ा पाखिए, श्रापै जाणे श्राप ।-'जपजी', २२। (२) अब मैं बाणि बौरे केवल राइ की कहांणीं। . -क. ग्रं॰, पृ० १४३, १६६। (३) वो है तैसा वोही जानै, वोहि पाहि, पाहि नहि भान । -वही, पृ. २४०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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