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नागरीप्रचारिणो पत्रिका
के कारण कबीर ने परमात्मा को 'बोल' और 'अबोल' के बीच
बताया है' ।
परंतु इतना सब होने पर भी कबीर के स्पष्ट शब्दों में सच तो यह है कि "परमात्मा को कोई जैसा कहे वैसा वह हो नहीं सकता, वह जैसा है वैसा ही है २ ।” कैसा है ? कोई नहीं बता सकता । परमात्मा को संबोधित कर कबीर ने कहा थाजस तू तस तोहि कोइ न जान । लोग कहैं सत्र श्रानहि आन ३ ॥
सुंदरदास भी प्रायः इन्हीं शब्दों में कहते हैं—
जोइ कहूँ सेाइ, है नहि सुदर है तो सही पर जैसे को तैसा । यहाँ पर इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि सूक्ष्म ब्रह्म-भावना का विस्तार - पूर्ण उल्लेख थोड़े ही संतों में पाया जाता है । उदाहरण के लिये नानक में ऐसे स्थल भी मिलते हैं जो परब्रह्म की सूक्ष्म से सूक्ष्म निर्विकल्प भावना में भी घट सकते हैं I एक जगह नानक ने कहा है, और आगे क्या है, इसे कोई कह नहीं सकता, जो कहेगा उम्रे पीछे पछताना पड़ेगा । क्योंकि उसका कथन
( १ ) जहाँ बोल तहँ श्राखर श्रावा । जहाँ अबोल तहाँ मन न रहावा ॥ बोल बोल मध्य है सोई । जस हु है तस लखै न कोई ॥ -वही पृ० १० ।
बीजक में अंतिम पद्य का कुछ भिन्न पाठ है
जहाँ बोल तह अक्षर आवा । जहाँ श्रदर तहँ मनहिं दिढ़ाया ॥ बोल बोल एक है जाई । जिन यह लखा सो बिरला होई ॥ -- 'बीजक', साखी, २०४ | अबोल ही जब बोल हो जाता है तब श्रवर ब्रह्म के दर्शन होते हैं । ( २ ) जस कथिए तस होत नहिं जस है वैसा सोइ । वही, पृ० २३० । (३) क०, ग्रं०, पृ० १०३, ४७ ।
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( ४ ) 'ज्ञान - समुद्र' ।
(५) ताकी आगला कथिश्रा ना जाई । जे को कहै पिछे पछिताउ ॥
- ' जपजी', ३५ ।
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