________________
१०६
नागरीप्रचारिणो पत्रिका
बीच देखना चाहिए' । सारी समस्या को हल करने के उद्देश से सहजाबाई के शब्दों में निर्गुणो उसे 'है' और 'नहीं' भाव और अभाव दोनों से रहित उद्घोषित करते हैं, जैसे हम एक अर्थ में परमात्मा को 'है' नहीं कह सकते वैसे ही 'नहीं' भी नहीं कह सकते, क्योंकि अन्य सभी पदार्थों का तो वही आधार है । परंतु यह भी एक प्रकार का प्रभाव ही है अतएव यह उन्हें एक स्वयं विरोधी स्थिति में पहुँचा देता है ।
इसी स्थिति के कारण प्राचीन ऋषि भाव ने में एक नवीन प्रणाली का अनुसरण किया था । से पूछा था कि प्रात्मा क्या है । पहली बार प्रश्न उत्तर न मिला तो वास्कलि ने समझा कि शायद ऋषि ने सुना या समझा नहीं । फिर पूछने पर भी जब उन्होंने तीव्र दृष्टि से वास्कलि की और केवल देखा भर तो उसे भय हुआ कि कहीं अनजान में मैंने ऋषि को प्रसन्न तो नहीं कर दिया। इसलिये उसने बड़ी विनय के साथ प्रश्न को दुहराया । इस बार ऋषि ने ॐ झलाकर उत्तर दिया- "मैं बताता तो हूँ कि आत्मा मैौन है, तुममें समझ भी हारे !" और बात भी ठीक हो है । परमात्मा को निर्विशेष
परमात्मा के वर्णन वास्कलि ने भाव
करने पर जब
( १ ) यह श्रत्यंताभाव है, यहई तुरियातीत । यह अनुभव साक्षात है, यह निश्चै अद्वैत ॥ "नाहीं नाहीं" कर कहै, "है है" कहै बखानि । "नाहीं" "है" के मध्य है, सो अनुभव करि जानि ॥
-ज्ञान-समुद्र, ४४ ।
( २ ) "है" "नाहीं" सू रहित है, 'सहजो' यों भगवंत । -सं० वा० सं०, भाग १, पृ० १६५ ।
( ३ ) 'ब्रह्मसूत्र', शांकर भाष्य, ३, २, १७; दास गुप्त - हिस्टरी भॉव इंडियन फिलॉसफी, भाग १, पृ० ४५ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com