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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय १०५ बालक है न बूढ़ा। न उसका तोल है, न मोल है, न ज्ञान है; न वह हल्का है, न भारी, न उसकी परख हो सकती है। परंतु इससे परिणाम क्या निकलता है ? परमात्मा के वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने में हम कहाँ तक सफल होते हैं ? कबीर ने कहा था, चारों वेद ( नेति नेति कहकर ) सब वस्तुओं को पोछे छोड़ते हुए आपका यशोगान करते हैं परंतु उससे वास्तविक लाभ कुछ होता नहीं दीखता, भटकता हुआ जीव लूटा अवश्य जाता है । क्योंकि जैसा नानक कहते हैं, परमात्मा के संबंध में कितना ही कह डालिए, फिर भी बहुत कहने को रह जाता है३ . इसी से कबीर ने झुंझलाकर कहा कि 'परमात्मा कुछ है भी या नहीं ?' सुंदरदास ने तो उसे 'अत्यंताभाव' कह दिया-हाँ, नास्तिकों के मतानुकूल अत्यंताभाव नहीं। परमात्मा है भी और नहीं भी है। जिस अर्थ में संसार के भौतिक पदार्थ हैं। उस अर्थ में परमात्मा 'है' नहीं है और जिस अर्थ में परमात्मा 'है' उस अर्थ में सांसारिक पदार्थ नहीं हैं। इसी लिये सुंदरदास कहते हैं कि परमात्मा है भी और नहीं भी है। बल्कि उसको 'है' और 'नहीं' इन दोनों के
(१) ना हम बार बूढ़ हम नाहीं, ना हमरे चिलकाई हो।
-क. ग्रं॰, पृ० १०४, ५० । तोल न मोल, माप किछु नाहीं गिनै ज्ञान न होई । ना सो भारी ना सो हलुश्रा, ताकी पारिख लखै न कोई ॥
-वही, पृ० १४४, १६६ । (२) रावर को पिछवार के गावै चारित सैन । जीव परा बहु लूट मैं ना कछु लैन न दैन ।
-'बीजक', पृ० ४८८ । (३) बहुता कहिए बहुता होई । -'जपजी', २२ । (४) तहाँ किछु श्राहि कि सुन्यं । क. ग्रं॰, पृ० १४३, १६४ ।
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