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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
श्यकता का अनुभव करता है जो दूर से दूर होने पर भी निकट से परमात्मा के अधिदेवत्व और व्यापकत्व नाम रूप की
निकट हो । उपाधियों से रहित उस परमतत्त्व को परिणाम हैं। उसकी पूर्णता उन्हीं में अस्पष्ट संकेत अवश्य करते हैं ।
इसी पक्ष दृष्टि से देखने के नहीं; हाँ उनकी
ओर वे
पूर्ण रूप में उस सत्तत्त्व का कोई उपयुक्त विचार ही नहीं कर सकता है । वह वामनस के परे हैं । बुद्धि मूर्त रूप का आधार चाहती है और वाणी रूपक का । इसलिये उस अमूर्त और अनुपम को ग्रहण करने में बुद्धि, और व्यक्त करने में वाणी, असमर्थ है । बुद्धि से हमें उन्हीं पदार्थों का ज्ञान हो सकता है जो इंद्रियों के गोचर हैं, इंद्रियातीत का नहीं । इसी से नानक ने कहा था कि लाख सेाचा, परमात्मा के बारे में सोचते बनता ही नहीं है' । यही कारण है कि 'यह परमात्मा है' ऐसा कहकर उसका निर्देश नहीं किया जा सकता ।
इसी कठिनाई के कारण सब सत्यान्वेषकों को नकारात्मक प्रणाली का अनुसरण करना पड़ता I 'परमात्मा यह है' न कहकर वे कहते हैं 'परमात्मा यह नहीं है' । ' स एष नेति नेति आत्मा' २ कहकर उपनिषदों ने इसी प्रणाली का अनुगमन किया है । हमारे संतों ने भी यह किया है । परमात्मा अवरण है, प्रकल है, अविनाशी है । न उसके रूप है, न रंग है, न देह३ ।
न वह
( १ ) से चै सोच न होवई जे सोचै लख बार । —'ग्रंथ', पृ० १ । ( २ ) 'बृहदारण्यकोपनिषद्', ४, ४, २२ | (३) अवरण एक अबिनासी घट घट थाप रहे ।
—क० प्र०, पृ० १०२, ४२ ।
रूप वरण वाके कुछ नाहीं सहजो रंग न देह । — सहजो, सं० बा० सं०, पृ० १६ ।
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