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नागरीप्रचारिणी पत्रिका परमात्मा का यह व्यापकत्व उसकी अनंत शक्ति का एक पक्ष मात्र नहीं, जैसा सामी विचार-परंपरा के अनुसार ठहरेगा, बल्कि उसी में उसकी सार-सत्ता है। यही उनके प्रेम-सिद्धांत की आधारशिला है।
यह व्याप्ति कहीं न्यून और कहीं अधिक नहीं। परमात्मा सब जगह अपनी पूर्ण सत्ता के साथ विद्यमान है। परंतु उसकी पूर्णता यही समाप्त नहीं हो जाती। इस विश्व में पूर्ण रूप से व्याप्त होने पर भी वह पूर्ण रूप से उसके परे है। इस अद्भुत राज्य में गणित की गणना बे-काम हो जाती है। बृहदारण्यकोपनिषत् के शब्दों में अगर कहें तो कह सकते हैं कि पूर्ण में से अगर पूर्ण को निकाल लें तो भी पूर्ण ही शेष रहता है । इसी भाव को दृष्टि में रखकर दादू ने कहा था कि परमात्मा ने कोई ऐसा पात्र नहीं बनाया है जिसमें सारा समुद्र भर जाय और और पात्र खाली हो रह जायें
चिड़ी चोंच भर ले गई नीर निघट न जाइ।
ऐसा वासण ना किया सब दरिया माहिं समाइ ॥ यह व्याप्ति इतनी गहन है कि व्यापक और व्याप्त में कोई अंतर ही नहीं रह जाता। सिद्धांतवादी कबीर की सहायता के लिये उसी के हृदय में से कवि बाहर निकलकर रसपूर्ण व्याप्ति को इस तरह संदेह के रूप में व्यक्त करता है
सुनु सखि पिउ महि जिउ बसै, जिउ महि बसै कि पीउ ॥ पूर्ण सत्य तक तब पहुँच होती है जब यह संदेह निश्चय में परिणत हो जाता है और प्रिय हृदय में तथा हृदय प्रिय में बसा हुआ
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(१) पूर्णमदः पूर्णमिदपूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥-२, १, ११ (२) बानी (ज्ञानसागर), पृ. ६३, ३२७ । (३)क. ग्रं॰, पृ० २६३,१८१ ।
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