________________
नागरीप्रचारिणी पत्रिका मुहम्मद के दूतत्व को तो उसने अस्वीकार कर दिया और ईश्वर-संबंधी विचार को और भी महान, सूक्ष्म और आकर्षक बना दिया।
इस्लाम और निर्गण पंथ दोनों परमेश्वर को एक मानते हैं। परंतु दोनों के एक मानने में अंतर है। इस्लाम की अल्लाह-भावना में अल्लाह एकाधिपति शाहंशाह के समान है जिसके ऊपर कोई शासनकर्ता नहीं, जिसकी शक्ति अनंत और अपरिमित है। हाँ, वह परम बुद्धिमान और न्यायकर्ता है। उससे कोई बात छिपी नहीं रह सकती। हर एक आदमी के किए हुए छोटे से छोटे पाप और पुण्य का उसके यहाँ हिसाब रहता है। श्रद्धालु धर्मनिष्ठों को वह मुक्तहस्त होकर पुरस्कार वितरित करता है किंतु अविश्वासी पापिष्ठ उसकी निगाह से बच नहीं सकता, उसे अवश्य दंड मिलता है। क्योंकि जैसा कुरान कहती है, “जिधर ही मुड़ो उधर ही मल्लाह का मुख है" ।
यह बात नहीं कि इस्लाम में अल्लाह दयालु न माना गया हो। कुरान का प्रत्येक सूरा अल्लाह की दयालुता का उल्लेख करते हुए प्रारंभ होता है। मुहम्मद के अनुसार परमेश्वर क्षमाशील है। पक्षिणी का जितना गाढ़ा प्रेम अपने बच्चे पर होता है, उससे अधिक अल्लाह का आदमी पर। किंतु इतना होने पर भी कुरान में का अल्लाह 'भय बिनु होय न प्रीति' की नीति को बरतता है। वह प्रेम का परमात्मा होने के बदले भय का भगवान् है। उसकी अनुकंपा और दयालुता उसकी अनंत शक्ति के ही परिचायक हैं। वह घोर दंड भी दे सकता है तो असीम अनुग्रह भी दिखा सकता है। "इस्लाम में प्रेरक भाव परमात्मा का प्रेम
(१) २, १०६ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com