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तवारिख-तीर्थ-पटना. ( २५७ ) लभद्रजी राजानंदके दरवारमें गये, और पुछाकि-मेरेवालिदकाइंतकाल किसतरह हुवा, राजानंदने कहा क्या ! तुम ख्वाबमेथे,जो अपने वालिदका हालभी नही जानते, उनोने एक-संगीन-गुनाह कियाथा जिसकी वजहसे उनकी मोत मरनापडा, अवतुम उसकी दिवानगिरी कुबुलकरो, स्थुलभद्रजीन अपने दिलमें खयाल किया कि-मुजे-जैसी दिवानगिरीसे कोइ जरुरतनहीं. जिससे कभीबेंमोत माराजाउ, जाहिरातमें राजा नंदसे कहा, में-कल इसका जवाब दूंगा, जैसा कहकर राजा नंदके दरवारसे-वे-अपने घरआये, और दुनयवी एशआरामको छोडकर संभूतिविजय गुरुके पास दीक्षा इख्तियार किइ, दुसरे रौज राजानंदके दरबारमें जाकर कहाकि मुजे-परमेश्वरके घरकी दिवानगिरी अछी मालूम देतीहै, राजानंदने इसवातपर तारीफ किइ, और कहा, जो कुछकिया अछाकिया, मगर इस दिवानगिरीकों उमदा तोरसे निभाना असा मतकरना कि-दोंनों-दीनसे जाओ. पेस्तरके लोग कैसे अछे दिलवालेथे-जरा नसीहत-पाइकि-धर्मके पावंद होजातेथे, आज ताबे उमर नसीहत पातेरहे मगर क्या ! मजालहै ! ! असरहो बल्कि कइलोग दीक्षालेनेवालेकी दिल्लगी करतेहैकि-इनसे कमाया नहीगया, फकीर होगये.
___ नवमेनंदके बाद पटनेके तख्तपर मौर्यवंशी राजाचंद्रगुप्त बेठा, निदानकि-नवमेनंदका और चंद्रगुप्तका जब पटनके मेदानमें जंग हुवा नवमेनंदने सिकस्तखाइ, चंद्रगुप्त फतेहमंद हुवा, चाणाक्य इसी चंद्रगुप्तका दिवानथा, जैनश्वेतांबर उमास्वाति वाचक इसी पटनाकें रहनेवालेथे, जैनाचार्य-भद्रबाहु-आर्यमहागिरि-आर्यसुहस्ति-और-वज्रस्वामि-इसपटनेमें तशरीफलायेथे. और जैनधर्मकी तरकी किइथी, पेस्तर यहां (६४) वादशाला (यानी) मजहबी
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