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________________ अपने कृपा पत्रों में हमें निम्न सन्देश देते हैं : - "श्री कांगड़ा तीर्थ यात्रा का हाल पढ़ कर प्रसन्नता हुई । घुटनों में दर्द रहने से मैं शामिल नहीं हो सकता । इस में कोई शंका नहीं कि जलसों ते भावना बहुत बढ़ती है परन्तु मैं इस कमी को जैन साहित्य और इतिहास के अध्ययन से पूरी कर लेता हूँ। मैं इस में बड़ी दिलचस्पी रखता हूँ । सन् १९४७ में बन्नू और कोहाट से हस्तलिखित पुस्तकें इघर लाई गई थीं परन्तु वहाँ पंजाब से बाहिर भेज दी गई। इसी प्रकार वैरोवाल के भण्डार में से भी ग्रन्थ आये और वह भी पंजाब से बाहिर चले गये । यहाँ इनका अध्ययन लाभ-प्रद होता। मतियों के लेख और मन्दिरों का इतिहास तैय्यार होना चाहिये । पंजाब ऐतिहासिक सामग्री से भरा पड़ा है। अब भी बहुत कुछ प्राप्त है जो कि धीरे धीरे ओझल हो रहा है और नष्ट हो रहा है।" श्रीमान् माननीय ला० बाबूराम जी प्रधानं श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाब, जीरा से १३ फरवरी १६५६ के पत्र में लिखते हैं। "यह मालूम करके हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप ने श्री कांगड़ा तीर्थ का इतिहास लिखा है । यह अति आवश्यक कार्य था जिस के लिए आप ने परिश्रम किया है । मुझे आशा है कि आप को अवश्य सफलता प्राप्त होगी। इस में किंचितमात्र सन्देह नहीं कि कांगड़ा की खुशनमा वादी मध्यकाल में जैन धर्म का केन्द्र थी और इस पुण्यभूमि के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों की यात्रा के लिये दूर दूर के यात्रा संघ आया करते थे । डा० सीताराम जी जो १९३२ सन् में सैंट्रल म्यूजियम लाहौर के क्यूरेटर थे श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब के वार्षिक उत्सव पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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