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________________ आत्मानन्द जैन महासभा का अधिवेशन भी हुआ परन्तु अभी तक तीर्थ को अपने हस्तगत न कर पाए । मेरे सुनने में आया है कि सरकार अपने सेवा पूजा के अधिकार को भी लेना चाहती है यदि यह बात सत्य हो तो बहुत ही दुःख की बात है। अपने पूजा सेवा भक्ति के अधिकार को कायम रखने के लिए जबरदस्त आन्दोलन करना चाहिये और कोई भी जैनी जाय तो उसको सेवा पूजा करने के लिए कोई रोक टोक न करे और की हुई आंगी वगैरह को तात्कालिक दूर कर देते हैं, ऐसा न होना चाहिये। अगर इस समय इतना भी प्रबन्ध हो सके तो अच्छा है। सुज्ञेषु किं बहुना वहाँ पर आए हुए सब भाई बहनों को धमलाभ विक्रम संवत् २०११ समुद्रसूरि का धर्मलाभ वीर संवत २४८१ फाल्गुन शुदि तृतीया आत्म संवत् ५६ ता० २५. २. १६५५ वल्लभ संवत १. बगवाड़ा जिला सूरत (३) परमपूज्य गुरुदेव भगवान् श्रीमद् विजयवल्लम सूरीश्वर जी. महाराज के शिष्यरत्न गुरुभक्त स्वर्गीय जैनाचार्य विजयललित सूरि जी महाराज के प्रभाविक शिष्य उपाध्याय श्री पूर्णानन्दविजय जी महाराज (आचार्य श्री विजयपूर्णानन्द सूरि जी) में हमारी विनति को स्वीकार करते हुए श्री माटुंगा, बम्बई से ३-३-५५ को वार्षिक उत्सव पर अपना शुभ आशीर्वाद हमें भेजा था जिस में परम श्रद्धय गुरुवर्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के गुणानुवाद के बाद संस्कृत भाषा में सुन्दर कविता के रूप में तार्थ महिमा का गान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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