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________________ शिष्य अमलचन्द्र हुए। उनके चरण-कमलों में भ्रमर के समान सिद्धराज था । उसका पुत्र ढंग हुआ ढंग से चेष्टक का जन्म हुआ । उसकी स्त्री राल्ही थी...... उसके धर्म परायण ऐसे दो पुत्र हुए जिन में से बड़े का नाम कुण्डलिक था और छोटे का कुमार ।......की आज्ञा से यह प्रतिमा बनाई गई। दूसरी जो जैन मूर्ति है वह इसी मूर्ति के पास में रखी हुई है और बैठी हुई स्त्री की आकृति की सी है। एक महत्त्वशाली लख :-माननीय डायरेक्टर जनरल सर. ए० सी० कनींघम साहिब ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट सन् १८७२-७३ भाग ५ में एक महत्वशालो लेख का ज़िकर किया है जो इस प्रकार है_ "कालीदेवी के मन्दिर में भी एक लेख था । ... .. मैंने जब इस मन्दिर को मुलाकात ली तब मुझे यह लेख नहीं मिल सका । इस के विषय में किसी ने मुझ से कोई हाल भी नहीं कहा । सोभाग्य से, इस लेख की दो नकलें मेरे पास हैं जो सन् १८४६ में मैंने अपने हाथ से लिख ली थी। इसकी मिति सं० १५६६ और शाका १४१३ है जो दोनों ई० सं० १५०६ के बराबर होती हैं । इस के प्रारम्भ में : "श्राम स्वस्ति श्री जिनाय नमः।" इस प्रकार जिन को नमस्कार किया गया है। और जिन शब्द तीर्थंकर का पर्यायवाची है। कांगड़ा क दीवान :-सर कनींघम की रिपोर्ट सन् १८७२-१८७३ नोट :- इस लेख की लिपि प्राचीन शारदा लिपि है और बैजनाथ प्रशस्ति की लिपि से बिल्कुल मिलती है इसलिये इस में बताया गया । लौकिक संवत् ३० कदाचित् ई० सं०८५४ हो सकता है। राजकुल गच्छ शब्द से जाना जाता है कि अभयचंद्राचार्य श्वेताम्बर थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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