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________________ (११) आ पहुँचा और जैन साधुओं के पहली बार दर्शन पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और सेठ सोमचन्द्र आदि को सम्मान देता हुआ वापिस चला गया। वहाँ से चल कर संघ तलपाटक पहुँचा जहाँ देवपालपुर का श्रीसंघ अपने नगर में पधारने की विनति करने आया परन्तु उपाध्याय श्री समयानुसार इस विनति को स्वीकार न कर सके। वहाँ से प्रयाण कर विपाशा (व्यास) नदी के किनारे किनारे चलते हुए संघ मध्यप्रदेश में जा पहुँचा। मध्य-प्रदेश को पार करते समय संघ को एक भयंकर परिस्थिति का सामना करना पड़ा । षोषरेश-यशोरथ और सिकन्दर की सेनाओं में मुठभीड़ हो रही थी और भग-दौड़ मची हुई थी, जिस से सब भयभीत हो उठे और प्रभु को याद करते हुए अपनी सुरक्षा का ढंग विचारने लगे। आखिर यही निश्चय ठहरा कि वापिस चल कर नदी को पार किया जाये । फलतः संघ वापिस हो लिया और नदी को पार करके कुगुद नाम के घाट में हो कर मध्य, जांगल, जालंधर और काश्मीर के मध्य में रहे हुए हरियाणा नाम के स्थान पर पहुँचा और वहाँ अपना पड़ाव डाल दिया। यहां पर सकल श्रीसंघ ने सेठ सोमा को संघपति के पद से अलंकृत करने का निश्चय किया और बड़े ठाठ बाठ से बैंड बाजों की मधुर ध्वनि के मध्य में मंगलगान गाते हुए सेठ सोमा के मनाही करते हुए भी उन्हें संघपति का विरुद सौंप कर सम्मानित किया इनके साथ ही मलिकवाहन के सं० मागट के पौत्र और सा० देवा के पुत्र उद्धर को महाधर के पद से विभषित किया । सा० नीवा, सा० रूपा, सा० भोजा को भी महाधर के पद सौंप कर सम्मान दिया गया और बुचास-गोत्रीय सा० जिनदत्त को 'सल्लहस्त्य' का विरुद समर्पण किया गया। पदवी धारण करने वाले सभी महानुभावों ने इसके उत्तर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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