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समाप्त हो चुकने के बाद जब कि कुछ श्रद्धालू लोग गुरुभक्ति में लीन होकर गुरु महाराज की स्तुति में गीत गान कर रहे थे एक पथिक व्याख्यान-शाला में आकर गुरु महाराज के चरणों में प्रणाम कर बैठ गया । कुछ अनोखा सा स्वरूप बना हुआ था उस विचारे पथिक का । कपड़े उस के थे फटे हुए, केशों में धूल जमी थी । और दायें हाथ में एक कमण्डलु लिए हुए था वह दुर्बल पथिक । गुरु महाराज ने उसकी इस दशा को देख कर अनुमान कर लिया कि यह भाई किसी दूर स्थान से आ रहा है। महाराज श्री ने उस से पूछा भाई ! कहो कहाँ से आ रहे हो। कोई नया समाचार भी सुनाओगे ? उत्तर में वह पथिक बड़े आनन्द में मग्न हो कर कहने लगा, कृपानाथ ! उस महातीर्थ की यात्रा करके लौट रहा हूँ जिसकी छटा अनुपम है, जिसकी महिमा अपरम्पार । उत्तर दिशा में त्रिगर्त नाम का जो देश है उस में सुशर्मपुर नाम का प्राचीन नगर है वहाँ भगवान् श्री आदिनाथ जी का पावन सुन्दर मंदिर यह महातीर्थ है जो देखने योग्य है इसके दर्शनों से आत्मा को परम आनन्द और शांति प्राप्त होती है। इसकी महिमा का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं । ऐसे तीर्थ महिमा का वर्णन करता हुआ कुछ देर वहाँ ठहरा फिर अपने जाने की आज्ञा लेकर गाँव की ओर चल दिया ।
इस तीर्थ की इतनी प्रशंसा सुन कर उपाध्याय जी, विराजमान मुनिराजों और श्रावकों के मन इस तीर्थ की यात्रा के लिए झुक पड़े । फलतः श्री संघ ने इस महातीर्थ की यात्रा करने का निश्चय कर लिया और इसके सम्बन्ध में कार्यक्रम बनने लगा। फरीदपुर के सुश्रावक सेठ राणा तथा उनके सुपुत्र सेठ सोमचन्द्र, पार्श्वदत्त और हेमराज ने यात्रा संघ निकालने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर बड़ी
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