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(५) है। लेखक ने इस में गद्य और पद्य दोनों का उपयोग किया है। जिस से यह अधिक रोचक बन गया है । विज्ञप्ति पत्र तो सारे का सारा संस्कृत में लिखा गया है परन्तु इसके अन्त में जो दो परिशिष्ट लिखे गये हैं वह उस समय की लोक भाषा में लिखे हुए हैं। यह पत्र ताड़पत्र पर लिखा हुआ है और आज जीर्ण अवस्था में पाटन के भण्डार में मौजूद है।
___ इस पत्र का पुनर्लेखन मुनि श्री जिनविजय जी महाराज ने सन् १६१६ में किया था जो कि श्री आत्मानन्द जैन सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ का नाम भी 'विज्ञप्ति-त्रिवणिः' ही रखा गया है। इसे अधिक उपयोगी बनाने के लिये मुनि श्री जिन विजय जी ने इसका हिन्दी में अनुवाद कर दिया है और पुरातत्व-विभाग के डायरेक्टर जनरल सर, ए० सी. कनिंघम साहिब की रिपोर्टों से भी इस सम्बन्ध की सामग्री प्राप्त करके इस ग्रन्थ में दे दी गई है और भी जो साधन मिल सक हैं उन्हें यहाँ देकर इसे अति सुन्दर बना दिया गया है। विज्ञप्ति-त्रिवेणिः का पूणे परिचय प्राप्त करने के लिये इस प्रन्थ को पढ़ना चाहिये । विज्ञप्ति-त्रिवेणिः को पढ़ने से आप संवत् १४८४ के यात्रा-संघ का पूर्ण परिचय प्राप्त कर सकेंगे जिससे आप को पता लगेगा कि इस पावन तीर्थ की कितनी महिमा थी, कितना. सौंदर्य था, जैन धर्म के प्रति शासकों के क्या भाव थे। जैन समाज की सामाजिक अवस्था क्या थी। इस विशाल यात्रा संघ के नायक थे उपाध्याय श्री जयसागर जी महाराज । इसलिये तीर्थ यात्रा के वर्णन से पहिले उनके सम्बन्ध में कुछ जानकारी देनी ज़रूरी है । सो नीचे दी जाती है।
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