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राज्य की दीवान-गीरी पर भी जैनों का बहुत समय तक अधिकार रहा इस बात के भी प्रमाण मौजूद हैं । उपर दिये गये अधिकतर भाव की पुष्टि के लिये प्रमाण रूप केवल एक ही ऐतिहासिक ग्रन्थ आज उपलब्ध हो सका है जिस का पवित्र नाम है "विज्ञप्ति त्रिवेणिः"। अतः विज्ञप्ति त्रिवेणिः' का परिचय देना आवश्यक है सो नीचे दिया जाता है।
विज्ञप्ति त्रिवेणिः पिछले समय में जब रेल गाड़ो चालू नहीं हुई थी एक स्थान के समाचार दूसरे स्थानों पर विज्ञप्तियों के द्वारा भेजे जाया करते थे। प्रायः शिष्य अपने गुरुओं की सेवा में चतुर्मास के समाचार विज्ञप्ति पत्रों में लिख कर भेजा करते थे । यह विज्ञप्ति पत्र जन्म-पत्री के स्वरूप समान हुआ करते थे। जो कि प्रायः बड़े बड़े लम्बे हुआ करते थे । कहीं २ तो ६० फुट तक लम्बे विज्ञप्ति पत्र भी सुनने में आये हैं। इन विज्ञप्तिपत्रों के लगभग आधे भाग में प्रायः केवल सुन्दर सुन्दर महत्त्वशाली चित्र हो हुआ करते थे और शेष भाग में चतुर्मास के आवश्यक समाचार होते थे।
यह विज्ञप्ति त्रिवेणि भी इसी प्रकार का एक विज्ञप्ति पत्र है। जिस में लेखों के तीन भाग होने से इसे विज्ञप्ति त्रिवेणि का नाम दिया गया है । यह विज्ञप्ति पत्र संवत् १४८४ के माघ शुदि दशमी के दिन सिंघ देश के मलिकवाहन नामक स्थान से श्री जयसागर उपाध्याय ने खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनभद्र-सूरि की सेवा में गुजरात देश के अणहिल्ल पुर-पाटन नामक नगर में भेजा था। पत्र बड़ो अच्छो आलंकारिक भाषा में सुन्दर रूप से लिखा गया है । पढ़ते समय वृत्तान्त के साथ काव्य का भी कुछ कुछ आनन्द प्राता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com