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________________ (ज) बसे हुए हैं। पुरातत्व विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष सर कनिंघम ने १८७२ ई० में कांगड़े का निरीक्षण किया और उन्होंने अपनी रिपोर्ट में वे बातें लिखों जिनसे जैन अजैन दोनों ही अपरिचित थे। उनकी प्रकाशित रिपोर्ट से पता चला कि कांगड़े के किले के छोटे मन्दिरों में भगवान् पार्श्वनाथ का भी एक मन्दिर है जिसमें आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की भव्यमूर्ति विराजमान है । पाठकों को यह पढ़कर और भी विस्मय होगा कि कनिंघम महोदय के निरीक्षण के अनुसार कालिदेवी के मन्दिर में भी एक लेख था जो उन्हें दोबारा जाने पर नहीं मिला । उस लेख की नकल उनके पास थी जिसके प्रारम्भिक शब्द थे 'ॐ स्वस्ति श्री जिनाय नमः ।' मर्ति का लेख और यह लेख; दोनों विक्रमीय १६वीं शताब्दी के हैं । उन्होंने इस तथ्य का भी उद्घाटन किया कि कांगड़े के किले में अपार धन सम्पत्ति थी । महमूद ग़ज़नवी यहां से जो माल लूट कर ले गया, इतिहासकारों के कथनानुसार 'उसे ऊँटों की पीठे उठा नहीं सकती थीं, बर्तनों में वह समा नहीं सकता था, लेखक की लेखनी उसका वर्णन नहीं कर सकती थी और गणित-शास्त्री की कल्पना भी गिनने में असफल थी।' कनिंघम महोदय की रिपोर्ट पर भी सम्भवतः जैनों का ध्यान जैनधर्म के इस प्राचीन केन्द्र की ओर नहीं गया। सौभाग्यवश इतिहास प्रेमी व जैन पुरातत्व के विद्वान मुनि श्री जिनविजय जी को एक भण्डार का निरीक्षण करते हुए सं० १९७२ में 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक एक पत्र मिला जो सं० १४८४ का लिखा हुआ था। आगामी वर्ष ही उसका ग्रंथ रूप में प्रकाशन हुआ । इस पत्र की प्राप्ति जैनधर्म व समाज के इतिहास में क्रांतिकारी समझी जानी चाहिये । इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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