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________________ प्रस्तावना पञ्चनद का विशाल भूखंड भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है । पुरातत्व इस बात का साक्षी है कि आर्यों के भारत में पदार्पण से पर्याप्त समय पूर्व भी इस प्रदेश के कुछ भागों में एक समुन्नत सभ्यता का प्रसार था । भगवान् ऋषभदेव के जीवन काल की घटनाओं को प्रामाणिक माना जाए तो ज्ञात होता है कि उन्होंने दीक्षा लेते समय तक्षशिला का राज्य अपने पुत्र बाहुबलि को दिया था भगवान् ने स्वयं भी एक बार इस नगर को अपनी चरणरज से पवित्र किया था और बाहुबलि ने उनको पावन स्मृति में पद बिम्ब बनवाए थे। इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म का किसी न किसी रूप में इस प्रांत में अतीव प्राचीन काल में भी अस्तित्व था । मुहेंजोदरो की सभ्यता के कई अङ्ग ऐसे हैं जो जैनधर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं । विद्वानों का मत है कि वहाँ प्राप्त होने वाली योगस्थ मुद्राएँ जनधर्म सम्मत काउसग्ग की ध्यानावस्था से मिलती हैं । श्रीयुत सी० जे० शाह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Jainism in Northern India' में सप्रमाण सिद्ध किया है कि पंजाब व निकटवर्ती प्रदेशों में जैनधर्म कैसे फला फूला । बौद्ध विद्वान् चीनी यात्री हूइनचांग क भ्रमण वृत्तांतों में भी कई वर्णन ऐसे है जा पंजाब में जैन मन्दिरों और जैन साधुओ के अस्तित्व का प्रमाण देते हैं । परन्तु इन सब अनुसंधानों में सब से आश्चर्यजनक अनुसंधान वह है जिस के आधार पर हमें यह पता चला कि कांगड़ा या उस के समीपवर्ती शहरों और गाँवों में भी किसी समय जैनधर्म की पताका लहरा रही थी। आज उस जिले में शायद सौ से अधिक जैन भी न होंगे और वह भी अधिकतर किसी व्यापार या नौकरी के लिये वहां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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