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________________ ( ७४ ) राजा थे और यह भी अपने पूर्वजों की भाँति जैनधर्म के भक थे। १३–'पल्लववंश' के राजा काञ्चीपुर ( काञ्चीवरम् ) में राज्य करते थे, जो एक समय जैनों का केन्द्र था । जिस समय जैनों का केन्द्र था। जिस समय हुइन्तसांग नामक चीनी यात्री वहां पहुँचा, तो उसने देखा कि यहां की प्रजा 'वीरता' धर्म, न्यायप्रियता और विद्या में श्रेष्ट थो और जैनों की संख्या अधिक थी! पल्लवराजवंश में भी जैनधर्म को आश्रय मिला था। श्री विमलचन्द्राचार्य पल्लव राजा के गुरू थे। इस वंश का 'महेन्द्र वर्मन्' राजा प्रसिद्ध है। यह 'कट्टर' जैनी था। किन्तु उपरान्त वह शैव धर्म में दीक्षित हो गया था ! १४–'कल चूरीवंश' मूल में उत्तर भारत में शासनाधिकारी था ! किन्तु सन् ११२६ ई० से ११८६ ई० तक यह दक्षिण भारत में भी प्रधान पद पर रह चुका है। इस वंश का 'विजलदेव' नामक राजा प्रसिद्ध जैन वीर था। १५-'कलभ्रवंश' मूल में द्राविड़ था और कर्णाठक प्रदेश उसका स्थान था । कोई २ इसे कल चूरिही बताते हैं। किन्तु इस वंश के राजा उनसे भिन्न हैं। पांचवीं शताब्दी में इस वंश के राजाओं ने पाण्ड्य, चोल और चेर राज्यों पर आक्रमण करके उन्हें अपने आधीन कर लिया था ! इस वंश के सब ही राजा महा पराक्रमी और जैन धर्म के पूर्व प्रभावक थे ! १६-'सांतार वंश' के राजाओं की राजधानी हमश में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034885
Book TitleJain Viro ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherKamtaprasad Jain
Publication Year1930
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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