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गुन गाय गाय जल क्रीडा कस्ने; तीसी समै श्री कृष्ण भी बंसीबटकी छोहमै बैठ धेनु चरावते थे. दैवों इनके गानेका सबद सुन वे भी चुपचाप चले आये, और लगे छीपकर देखने; निदान देखते देखते जो कुछ इनके जी में आई, तो सब वस्त्र चुराय, कदम पर जा चढे. गढडी बांधी आगे धरली; इतने में गोपी जो देखे तो तीर पर चीर नहीं. तब गबराय कर चारों और उठ उठ लगी देखने. और आपसमें कहने लगी की अभि लो यहाँ एक चिंडीया भी नहीं आई, बसन कौन हर ले गया भाई. इस बीच एक गोपीने देखा, की सीरपर मुकुट, हाथमें लकुट, केसर तिलक दीये, बनमाल हीये, पीतांघर पहरे, कपड़ों की गढडी बांधे, श्री कृष्ण कदम पै चढ छीपे हूऐ बढ़े है. वह देखते ही पुकारा, सखी, वे देखो हमारे चीतचोर चीरचोर कदंब पर पोट लीये वीराजते है. यह बचन सुन और सब युवती श्री कृष्णको देख लजाय, पानीमें पैठ, हाथ जोड शीरनाय, बीनंती कर हाहाखाय बोली. अध्याय-२३.
(२) और सुनो, जिन जिन ने जैसे जैसे भावसे श्री कृष्णको मानके मुक्ति पाए सो कहता हूं. कि नंद जसोदादीने तो पुत्र कर बुझा; गोपीयोने जार कर समझा; कंसने भयकर भजा; ग्वाल वालोने भित्र कर जपा, पांडवोने प्रीतम कर जाना; सीसुपालने शत्र कर माना; यदुवंसीओने अपना कर जाना; और जोगी जती मुनियोने ईश्वर कर थापा. अंतमें मुक्ति पदारथ सबहीने पाया. अध्याय ३०
(३) महाराज, जिस काल सब गोपोया अपने अपने झुंड लीए, श्री कृष्णचंद्रजी जगत् उजागर, रुप सागर से धाय कर जाय मिली की
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