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[१८] ( ३ ) इस ग्रंथ के दसवें अध्याय में रत्न करण्ड-श्रावकाचार के 'विषयाशावशातीतो' आदि साठ पद्य तो ज्यों के त्यों और पाँच पद्य कुछ परिवर्तन के साथ संग्रह किये गये हैं। परिवर्तित पद्यों में से पहला पद्य इस प्रकार है।
अष्टांगैः पालितं शुद्धं सम्यक्त्वं शिवदायकम् ।
म हि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २८ ॥ यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१ वें पद्य रूपान्तर है । इसका उत्तरार्ध तो वही है जो उक्त २१ वें पद्य का है, परन्तु पूर्वार्ध को बिलकुल ही बदल डाला है और यह तबदीली साहित्य की दृष्टि से बड़ी है। भद्दी मालूम होती है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१वें पद्यका पूर्वार्ध है
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । ___पाठकजन देखें, इस पूर्वार्ध का उक्त पद्य के उत्तरार्ध से कितना गहरा सम्बन्ध है। यहाँ सम्यग्दर्शन की अंगहीनता जन्मसंतति को नाश करने में असमर्थ है और वहाँ उदाहरण में मंत्र की अक्षरन्यूनता विषवेदना को दूर करने में अशक्त है-दोनों में कितना साम्य, कितना सादृश्य और कितनी एकता है, इसे बतलाने की जरूरत नहीं । परन्तु खेद है कि भट्टारकजी ने इसे नहीं समझा और इसलिये उन्होंने रत्न के एक टुकड़े को अलग करके उसकी जगह काच जोड़ा है जो बिल. कुल ही बेमेल तथा बेडौल मालूम होता है । दूसरे चार पद्यों की भी प्रायः ऐसी ही हालत है-उनमें जो परिवर्तन किया गया है वह व्यर्थ जान पड़ता है । एक पद्य में तो 'महाकुलाः ' की जगह उत्तमकुलाः' बनाया गया है, दूसरे में 'ज्ञेयं पाखण्डिमोहनं' को 'ज्ञेया. पाखण्डिमूढता' का रूप दिया गया है, तीसरे में 'स्मयमार्गतस्मया' की जगह 'श्रीयते तन्मदाष्टकम्' यह चौथा चरण कायम किया गया है और चौथे पद्य में 'दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते'
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