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[१७] उत्पन्न की ! बल्कि नियतकालिक सामायिक के अनुष्ठान में 'सर्वदा' शब्द का प्रयोग कुछ खटकता जरूर है । मद्यमांसमधून्युज्झत्पंचक्षीरफलानि च । अटैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूजवधाद्विदुः ॥ ६-१६४ ॥
यह पद्य सागर-धर्मामृत के दूसरे अध्याय के पद्य नं० २ और नं. ३ बनाया गया है । इसका पूर्वार्ध पद्य नं. २ का उत्तरार्ध और उत्तरार्ध पद्य नं. ३ का पूर्वार्ध है । साथ ही 'स्थूलवधादि वा' की जगह यहाँ ' स्थूलवधाद्विदुः ' ऐसा परिवर्तन भी किया गया है। सागार-धर्मामृत के उक्त पद्य नं. २ का पूर्वाध है 'तत्रादौ अधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुं' और पद्य नं० ३ का उत्तरार्ध है । फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थान इहैव वा । ये दोनों पद्य १० वें अध्याय में ज्यों के त्यों उद्धृत भी किये गये हैं
और वहाँ पर अष्टमूल गुणों का विशेष रूप से कथन भी किया गया है, फिर नहीं मालूम यहाँ पर यह अष्टमूल गुणों का कथन दोबारा क्यों किया गया है और इससे क्या लाभ निकाला गया। प्रकरण तो यहाँ त्याज्य अन्न अपवा भोजन का था-कोल्हापुर की छपी हुई प्रति में 'अथ त्याज्यानम्' ऐसा उक्त पच से पहले लिखा भी है-और उसके लिये इन आठ बातों का कथन उन्हें अष्टमल गुण की संख्या न देते हुए भी किया जा सकता था और करना चाहिये था-खासकर ऐसी हालत में जब कि इनके त्याग का मूलगुण रूप से आगे कथन करना ही था। इसके सिवाय दूसरे 'रागजीववधापाय* नामक पध में जो परिवर्तन किया गया है यह बहुत ही साधारण है। उसमें 'रात्रिभक्तं' की जगह 'रात्रीभुक्ति' बनाया गया है और यह बिलकुल ही निरर्थक परिवर्तन जान पड़ता है।
* यह सागार-धर्मामृत के दूसरे अध्याय का १४ वा पर है और सोमसेन-त्रिवर्णाचार के छठे अध्याय में नं० २०१ पर दर्ज है।
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