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________________ [२२७] देशक, सर्व के हितकारी और कुमार्ग का मथन करने वाले होते हैं । ऐसे शास्त्रों के विषय में उक्त प्रकार की चिंता करने के लिये कोई स्थान ही नहीं होता-वे तो खुलेमैदान परीक्षा के लिये छोड़ दिये जाते हैंउनके विषय में भी उक्त प्रकार की चिन्ता व्यक्त करना अपनी श्रद्धा की कचाई और मानसिक दुईलता को प्रकट करना है। इसके सिवाय, सोनीजी को शायद यह भी मालूम नहीं कि 'कितने ही भ्रष्टचारित्र पंडितों और वठरसाधुमों ( मूर्ख तं मुनियों) ने जिनेन्द्रदेव के निर्मल शासन को मलिन कर दिया है--कितनी ही असत् बातों को, इधर उधर से अपनी रचनादिकों के द्वारा, शासन में शामिल करके उसके खरूप को विकृत कर दिया है' (इससे परीक्षा की और भी खास जरूरत खड़ी हो गई है। जैसा कि अनगारधर्मामृत की टीका में पं०. आशाधरजी के द्वारा उद्धृत किसी विद्वान् के निम्न वाक्य से प्रकट है:-- पण्डितै भ्रष्टचारित्रैर्वठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मल मलिनीकृतम् ॥ सोमसेन भी उन्हीं वठर अथवा धूर्त साधुओं में से एक थे, और यह बात ऊपर की आलोचना परसे बहुत कुछ स्पष्ट है। उनकी इस महा आपत्तिजनक रचना (त्रिवर्णाचार) को सत्यशास्त्र का नाम देना वास्तव में सत्य शास्त्रों का अपमान करना है । अतः सोनीजी की चिन्ता, इस विषय में, * जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से प्रकट है: प्राप्तोपशमनुलंध्यमदृष्टेशविरोधकम् । वत्वोपदेशकृत्सार्व शालं कापथघट्टनम् ॥ (रत्नकरण्ड श्रा०) इसी बातको लक्ष्य करके किसी कवि ने यह वाक्य कहा हैजिनमत महमा मनोम प्रति कलियुग छादित पंथ । समझबूझके परखियो चर्चा निर्णय ग्रंथ ॥ और बड़े बड़े भाचार्यों ने तो पहले से ही परीचापपानी होने का उपदेश दिया है-मयभद्धालु बनने का नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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