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[२२८] बिलकुल ही निर्मूल जान पड़ती है और उनकी अस्थिरचित्तता तथा दुलमुलयकीनी को और भी अधिकता के साथ साबित करती है। ___यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सोनीजी की यह अस्थिरचित्तता बहुत दिनों तक उनका पिण्ड पकड़े रही है-सम्भवतः ग्रंथ के छष जाने तक भी आपका चित्त डॉवाडोल रहा है और तब कहीं जाकर आपको इन पदों पर कुछ संदेह होने लगा है । इसीसे शुद्धिपत्र-द्वारा, १३वें और १७वें श्लोकके अनुवाद पीछे एक एक नया भावार्थ जोड़नेकी सूचना देते हुए, आपने उन भावार्थों में ११ से १३ और १७ से १९ नम्बर तक के छह श्लोकों पर 'क्षेपक' होने का संदेह प्रकट किया है--निश्चय उसका भी नहीं-और वह संदेह भी निर्मूल जान पड़ता है। इन पोंको क्षेपक मानने पर १० वें नम्बर का पद्य निरर्थक हो जाता है, जिसमें उद्देशविशेष से देवों के तर्पण की प्रतिज्ञा की गई है और उस प्रतिज्ञा के अनुसार ही अगले श्लोकों में तर्पण का विधान किया गया है। १३ वा श्लोक खुद वस्त्रनिचोड़ने का मंत्र है और हिन्दुओं के यहाँ भी उसे मंत्र लिखा है; जैसा कि पहले जाहिर किया जा चुका है। सोनीजी ने उसे मंत्र ही नहीं समझा
और वस्त्र निचोड़नेका कोई मंत्र न होने के आधार पर इन श्लोकोंके क्षेपक होने की कल्पना कर डाली !! अतः ये श्लोक क्षेपक नहीं-ग्रंथ में वैसे ही पीछे से शामिल होगये अथवा शामिल कर लिये गये नहीं--किंतु भट्टारकजी की रचना के अंगविशेष हैं। जिनसेनत्रिवर्णाचार में सोमसेनत्रिवर्णाचार की जो नकल की गई है उसमें भी वे उद्धृत पाये जाते हैं।
यहाँ तक के इस सब कथन से यह स्पष्ट है कि भट्टारकजी ने हिंदुओं के तर्पणसिद्धांत को अपनाया है और वह जैनधर्म के विरुद्ध है। सोनीजी ने उसे जैनधर्मसम्मत प्रतिपादन करने और इस तरह सत्य पर पर्दा डालने की जो अनुचित चेष्टा की है उसमें वे जरा भी सफल नहीं हो सके और अंत में उन्हें कुछ पद्यों पर थोथा संदेह करते ही बना। साथ में आपकी श्रद्धा और गुणज्ञता आदि का जो प्रदर्शन हुआ सो जुदा रहा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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