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________________ [२२६) है ? वह जरूर विधवा हो गई है,' और यह कहकर और भी ज्यादा फूट फूटकर रोने लगा था; और तब लोगों ने उसकी बहुत ही हँसी उड़ाई थी। सोनीजी की दृष्टि में भट्टारकजी का यह ग्रंथ घर के उस विश्वासपात्र आदमी की कोटि में स्थित है। इसीसे साक्षात् असम्भव जान पड़ने वाली बातों को भी, इसमें लिखी होने के कारण, आप सत्य समझने और जैनधर्मसम्मत प्रतिपादन करने की मूर्खता कर बैठे हैं ! यह है आपकी श्रद्धा और गुणज्ञता का एक नमूना !! अथवा गुरुमुख से शास्त्रों के अध्ययन और मनन की एक बानगी !! सोनीजी को इस बात की बड़ी ही चिन्ताने घेरा मालूम होता है कि ' कहीं ऐसी असम्भव बातों को भी यदि झूठ मान लिया गया तो शास्त्र की कोई मर्यादा ही न रहेगी. फिर हर कोई मनुष्य चाहे जिस शास्त्र की बात को, जो उसे अनिष्ट होगी, फौरन अलीक ( झूठ) कह देगा, तब सर्वत्र अविश्वास फैल जायगा और कोई भी क्रिया ठीक ठीक न बन सकेगी !" इस बिना सिर पैर की निःसार चिन्ता के कारण ही आपने शास्त्र की-नहीं नहीं शास्त्र नाम की मर्यादाका उल्लंघन न करनेका जो परामर्श दिया है उसका यही श्राशय जान पड़ता है कि शास्त्र में लिखी उलटी सीधी, भली बुरी, विरुद्ध अविरुद्ध और सम्भव असम्भव सभी बातों को बिना चूँ चरा किये और कान हिलाए मान लेना चाहिये, नहीं तो शास्त्र की मर्यादा बिगड़ जायगी !! वाह ! क्या ही अच्छा सत्परामर्श है !! अंधश्रद्धा का उपदेश इससे भिन्न और क्या होगा वह कुछ समझ में नहीं आता !!! मालूम होता है सोनीजी को सत्य शास्त्र के स्वरूप का ही ज्ञान नहीं । सच्चे शास्त्र तो श्राप्त पुरुषों के कहे होते हैं-उनमें कहीं उलटी, बुरी, विरुद्ध और असम्भव बातें भी हुआ करती हैं ? वे तो वादी-प्रतिवादी के द्वारा अनु लंध्य, युक्ति तथा श्रागम से विरोधरहित, यथावत् वस्तुस्वरूप के उपShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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