SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २१४ ] अनुकूल न पाकर अथवा कुछ लोकविरुद्ध समझ कर जो उस पर पर्दा डालने की चेष्टा की है वह कितनी नीच, निःसार तथा जघन्य है और साथ ही विद्वत्ता को कलंकित करने वाली है । जो लोग इस विचार पर अपनी 'अटल श्रद्धा' का ढढोरा पीटते हुए उसको प्रामाणिक ग्रंथ बतलाते हैं और फिर खियाँ के पुनर्विवाह का निषेध करते हैं उनकी स्थिति निःसंदेह बड़ी ही विचित्र और करुणाजनक है ! वे खुद अपने को ठगते हैं और दूसरों को उगते फिरते हैं !! उन्हें यदि सचमुच ही इस ग्रंथ को प्रमाण मानना था तो स्त्रियों के पुनर्विवाहनिषेध का साहस नहीं करना था; क्योंकि स्त्रियों के पुनर्विवाह का विधान तो इस ग्रंथ में है ही, वह किसी का मिटाया मिट नहीं सकता | तर्पण, श्राद्ध और पिण्डदान । 1 ( २८ ) हिन्दुओं के यहाँ, स्नान का अंग स्वरूप, तर्पण नाम का एक नित्य कर्म वर्णन किया है । पितरादिकों को पानी या तिलोदक ( तिलों के साथ पानी ) आदि देकर उनकी तृप्ति की जाती है, इसीका नाम तर्पण है । तर्पण के जल की देव और पितरगण इच्छा करते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं, ऐसा उनका सिद्धान्त है । यदि कोई मनुष्य नास्तिक्य भाव से अर्थात्, यह समझ कर कि 6 देव पितरों को जलादिक नहीं पहुँच सकता, तर्पण नहीं करता है तो जल के इच्छुक पितर उसके देह का रुधिर पीते हैं, ऐसा उनके यहाँ योगि याज्ञवल्क्य का वचन है । यथा: 11 + पं० धन्नालालजी कासलीवाल ने भी १० वर्ष हुए 'सत्यवादी' में प्रकाशित अपने लेख द्वारा यह घोषणा की थी कि - " मेरा सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार ग्रंथ पर पटल अज्ञान है और में उसे प्रमाणीक मानता हूँ" । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy