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________________ [२१३] समर्थन ही होता है । आपने एक ' भावार्थ ' लगाकर उसे कुछ गले उतारने की चेष्टा की है और उसमें ब्राह्मणधर्म के अनुसार धर्मपत्नी, भोगपत्नी, प्रथम विवाह धर्म्य विवाह, दूसरा विवाह काम्य विवाह,सवर्या स्त्री के होते हुए श्रसवर्णा स्त्री से धर्म कृत्य न कराये जावें, आदि कितनी ही बातें लिखी और कितने ही निरर्थक तथा अपने विरुद्ध वाक्य भी उद्धृत किये परन्तु बहुत कुछ सर पटकने पर भी भाप गालव ऋषि का तो क्या दूसरे भी किसी हिन्दू ऋषि का कोई ऐसा वाक्य उद्धृत नहीं कर सके जिससे पुरुषों के पुनविवाहविषयक स्वयंभू अधिकार का विरोध पाया जाय। और इसलिये आपको यह कल्पना करते ही बना कि “कोई ब्राह्मण ऋषि दो विवाहों को भी धर्मा विवाह स्वीकार करते हैं और तृतीय विवाह का निषेध करते हैं । तब संभव है कि गालव ऋषि दूसरे विवाह का भी निषेध करते हों।" इतने पर भी आप अंत में लिखते हैं"जो लोग इस श्लोक से स्त्रियों का पुनर्विवाह अर्थ निकालते हैं वह विलकुल अयुक्त है। क्योंकि यह अर्थ स्वयं ब्राह्मणसम्प्रदाय के विरुद्ध पड़ता है।" यह धृष्टताकी पराकाष्टा नहीं तो और क्या है ? वह अर्थ ब्राह्मणसम्प्रदाय के क्याविरुद्ध पड़ता है उसे आप दिखला नहीं सके और न दिग्वला सकते हैं । आपका इस विषय में ब्राह्मण सम्प्रदाय की दुहाई देना उसके साहित्य की कोरी भनभिज्ञता को प्रकट करना अथवा भोले भाइयों को फंसाने के लिये व्यर्थ का जाल रचना है। अस्तु । इस सब विवेचन पर से सहृदय पाठक सहज है। में इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि भट्टारकजी ने अपरित्यक्ता स्त्रियों के लिये भीजिनमें विधवाएँ भी शामिल जान पड़ती है--पुनर्विवाह की साफ व्यवस्था की है और सोनीजी जैसे पंडितों ने उसे अपनी चित्तवृत्ति के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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