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________________ [२१२] "आगे चलकर गालव महाशय के विषय में जो आपने लिखा है। वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वे महाशय जैन नहीं हैं । किसी दि० जैन ऋषि का प्रमाण देकर पुनर्विवाह सिद्ध करते तो अच्छा होता ।......... यह कहा जा चुका है कि १७१ से १७६ तक के रलोक दि० जैन ऋषि प्रणीत नहीं हैं, मनुस्मृति के हैं।" इससे जाहिर है कि सोनीजी इस श्लोक पर से स्त्रियों के पुनर्विवाह की सिद्धि जरूर मानते थे परन्तु उन्होंने उसे अजैन श्लोक बतला कर उसका तिरस्कार कर दिया था। अब इस अनुवाद के समय आपको अपने उस तिरस्कार की निःसारता मालूम पड़ी और यह जान पड़ा कि वह कुछ भी कार्यकारी नहीं है। इसलिये आपने और भी अधिक निष्ठुरता धारण करके, एक दूसरी नई तथा विलक्षण चाल चली और उसके द्वारा बिलकुल ही अकल्पित अर्थ कर डाला ! अर्थात् इस पद्य को स्त्रियों के पुनर्विवाह की जगह पुरुषों के पुनर्विवाह का बना डाला !! इस कपटकला, कूटलेखकता और अनर्थ का भी कहीं कुछ ठिकाना है !!! भला कोई सोनीजी से पूछे कि 'कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेत्' का अर्थ जो आपने " कलियुग में एक धर्मपत्नी के होते हुए दूसरा विवाह न करे " दिया है उसमें 'एक धर्मपत्नी के होते हुए' यह अर्थ मूल के कौन से शब्दों का है अथवा पूर्व पद्यों के किन शब्दों पर से निकाला गया है तो इसका आप क्या उत्तर देंगे? क्या ' हमारी इच्छा' अथवा यह कहना समुचित होगा कि पुरुषों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिये स्त्री के मर जाने पर भी वे कहीं इस मतानुसार पुनर्विवाह के अधिकार से वंचित न हो जॉय इसलियेहमने अपनी ओर से ऐसा कर दिया है ? कदापि नहीं । वास्तव में, मापका यह अर्थ किसी तरह भी नहीं बनता और न कहीं से उसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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