SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२०३] अपने अनुकून न पाकर अथवा कुछ लोकविरुद्ध समझकर उस पर पदी डालने और भ्रम फैलाने की जो जघन्य चेष्टा की गई है उसका नाम दृश्य सबके सामने उपस्थित कर दिया जाय, जिससे वह पर्दा उठ जाय और भोले भाइयों को भी भट्टारकजी का कपन अपने असली रूप में दृष्टि. गोचर होने लगे-फिर भने ही वह उनके अनुकूल हो या प्रतिकूल | और इसलिए मुझे इतना भोर भी बतला देना चाहिये कि सोनीजी ने जो यह प्रतिपादन किया है कि 'ग्रंथकार ने विधवा के लिये तेरहवें अध्याय में दोही मार्ग बतलाये हैं -एक जिनदीमाप्रहण करना और दूसरा वैधव्यदीक्षा लेना-तीसरा विधवाविवाह नाम का मार्ग नहीं बतलाया', और उस पर से यह नतीजा निकाला है कि 'ग्रंथकार का श्राशय विधवाविवाह के अनुक्न नहीं है-होता तो वे वहीं पर विधवाविवाह नाम का एक तीसरा मार्ग और बतला देते', उसमें भी कुछ सार नहीं है-वह भी मसलियत पर पर्दा डालने की ही एक चेष्टा है। तेरहवें अध्याय में जिस पद्यद्वारा जिनदीक्षा अथवा वैधव्यदीक्षा के विकल्प रूप से ग्रहण करने की व्यवस्था की गई है उसमें उत, स्वित् और वा अन्ययों के साथ 'श्रेयान्' पद पड़ा हुआ है * और वह इस बात को स्पष्ट बतला रहा है कि दोनों प्रकार की दीक्षा में से किसी एक का प्राण उसके लिये श्रेष्ठ हैअति उत्तम है। यह नहीं कहा गया कि इनमें से किसी एक का ग्रहण उसके लिये नाजिमी है अथवा इस प्रकार के दीक्षामहण से भिन्न दूसरा या तीसरा कोई मध्यम मार्ग उसके लिये है ही नहीं। मध्यम मार्ग जरूर है और उसे मट्टारकजी ने पाठवें तथा ग्यारहवें अध्याय में 'पुनर्विवाह के रूप में सूचित किया है। और इसलिये उसे दुबारा यहाँ लिखने की जरूरत नहीं थी। यहीं पर जो उत्कृष्ट मार्ग रह गया था उसी का समुच्चय किया गया * यथा: विधवायास्ततो मार्या जिनशासमाश्रयः। भेयानुतस्विवैधन्यदीक्षा वा गृह्यते तदा ॥ १८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy