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________________ [२०४] है। और इसलिये यदि कोई विधवा जिनदीक्षा धारण न कर सके और वैधव्यदीक्षा के योग्य देशव्रत का ग्रहण, कण्ठसूत्र और कर्णभूषण आदि सम्पूर्ण आभूषणों का त्याग, शरीर पर सिर्फ दो वस्त्रों का धारण, खाट पर शयन तथा अंजन और लेप का त्याग, शोक तथा रुदन और विकथाश्रवण की निवृत्ति, प्रातः स्नान, आचमन-प्राणायाम और तर्पण की नित्य प्रवृत्ति, तीनों समय देवता का स्तोत्रपाठ, द्वादशानुप्रेक्षा का चिन्तवन, • ताम्बूलवर्जन और लोलुपतारहित एक बार भोजन, ऐसे उन सब नियमों का पालन करने के लिये समर्थ न होवे जिन्हें भट्टारकजी ने, 'सर्वमेतद्विधी. यते' जैसे वाक्य के साथ, वैधव्यदीक्षा-प्राप्त स्त्री के लिये आवश्यक बतलाया है, तो वह विधवा भट्टारकजी के उस पुनर्विवाह-मार्गका अवलम्बन लेकर यथाशक्ति श्रावकधर्म का पालन कर सकती है; ऐसा भट्टारकजी के इस उत्कृष्ट कथन का पूर्व कथन के साथ आशय और सम्बन्ध जान पड़ता है । 'पाराशरस्मृति में भी विधवा के लिये पुनर्विवाह की उस व्यवस्था के बाद, उसके ब्रह्मचारिणी रहने आदि को सराहा हैलिखा है कि 'जो स्त्री पति के मर जाने पर ब्रह्मचर्यव्रत में स्थिर रहती है-.-वैधव्यदीक्षा को धारण करके दृढ़ता के साथ उसका पालन करती है-वह मर कर ब्रह्मचारियों की तरह स्वर्ग में जाती है । और जो पति के साथ ही सती हो जाती है वह मनुष्य के शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ बाल हैं उतने वर्ष तक स्वर्ग में वास करती है ।' यथाः मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचर्यवते स्थिता। सा मृता लभते स्वगं यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥ ३१ ॥ तिनः कोट्योधकोटी च यानि लोमानि मानवे । तावत्कालं वसेत्स्वर्गे भर्तारं याऽनुगच्छति ॥ ३२ ॥ पाराशरस्मृति के इन वाक्यों को पूर्ववाक्यों के साथ पढ़नेवाला कोई भी सहृदय विद्वान् जैसे इन वाक्यों पर से यह नतीजा नहीं निकाल सकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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