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________________ [२०२] वाक्य पहले उद्धृत किया ही जाचुका है। सोनीजी को यदि अपने घर की ही खबर होती तो वे 'सोमदेवनीति' से नहीं तो आचार्य अमितयति की धर्मपरीक्षा' परसे ब्राह्मणग्रंथों का हाल मालूम कर सकते थे और यह जानसकते थे कि उनके पागम में विधवाविवाह का विधान है। धर्मपरीक्षा का वह पत्यौप्रव्रजिते'वाक्य ब्राह्मणोंकी विधवाविवाह-विधिको प्रदर्शित करने के लिये ही लिखा गया है; जैसाकि उससे पूर्व के निम्नवाक्य से प्रकट है: तैरुलं विधवां कापि त्वं संगृह्य सुखी भव । नोभयोर्विद्यते दोष इत्युक्तस्तापसागमे ॥ ११-११॥ धर्मपरीक्षा के चौदहवें परिच्छेद में भी हिंदुओं के स्त्री-पुनर्विवाह का उल्लेख है और उसे स्पष्ट रूप से व्यासादीनामिदं वचः' के साथ उल्लेखित किया गया है, जिसमें से विधवाविवाह का पोषक एक वाक्य इस प्रकार है:-- .. एकदा परिणीताऽपि विपन्ने दैवयोगतः । भर्तयक्षतयोनिः स्त्री पुनःसंस्कारमईति ॥ ३८ ॥ अतः सोनीजी का उक्त लिखना उनकी कोरी नासमझी तथा प्रज्ञता को प्रकट करता है | और इसी तरह उनका यह लिखना भी मिथ्या ठहरता है कि "विवाहविधि में सर्वत्र कन्याविवाह ही बतलाया गया है" । बल्कि यह भट्टारकजी के 'शूद्रापुनर्विवाहमण्डने' वाक्य के भी विरुद्ध पड़ता है; क्योंकि इस वाक्य में जिस शूद्रा के पुनर्विवाह का उल्लेख है उसे सोनीजी ने 'विधवा' स्वीकृत किया है-भले ही उनकी दृष्टि में वह असत् शदा ही क्यों न हों, विधवा और विवाह का योग तो हुआ। यहाँ पर मुझे विधवाविवाह के औचित्य या अनौचित्य पर विचार करना नहीं है और न उस दृष्टि को लेकर मेरा यह विवेचन है। मेरा उद्देश्य इसमें प्रायः इतना ही है कि भट्टारकजी के पुनर्विवाहविषयक कथन को *औचित्यानौचित्य विचार की उस दृष्टि से एक जुदा ही वृहत् निबन्ध लिना जाने कीज़रूरत है, जिसके लिये मेरे पास भभी समय नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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