SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१९६) का माश्रय लेना पड़ा-परंतु फिर भी आप यह सिद्ध नहीं कर सके कि भट्टारकजी ने विधवाविवाह का सर्वथा निषेध किया है । आपको अपनी कल्पना के अनुसार इतना तो स्वीकार करना ही पड़ा कि इस पद में असत् शदा की विधवाविवाह-विधि का उल्लेख है-हालाँकि मूल में 'शुद्धा' शब्द के साथ 'असत् विशेषण लगा हुआ नहीं है, वह शूद्रा मात्र का वाचक है । अस्त; आपने ‘सोमदेवनीति' (नीति-वाक्यामृत ) के जिस वाक्य के आधार पर अपनी कल्पना गदी है वह इस प्रकार है सकृत्परिणयनन्यवहारा सच्छूद्राः। इस वाक्य पर संस्कृत की जो टीका मिलती है और उसमें समर्थन के तौर पर जो वाक्य उद्धृत किया गया है उससे तो इस वाक्य का आशय यह मालूम होता है कि 'जो भले शुद्ध होते हैं वे एक बार विवाह करते हैं-विवाह के ऊपर या पश्चात् दूसरा विवाह नहीं करते'-और इससे यह जान पड़ता है कि इस वाक्य द्वारा शुद्रों के बहुविवाह का नियंत्रण किया गया है। अथवा यों कहिये कि त्रैवर्णिक पुरुषों को बहु. विवाह का जो स्वयंभू अधिकार प्राप्त है उससे बंचार शूद्र पुरुषों को वंचित रक्खा गया है । यया: "टीका-ये सच्द्राः शोभन शूद्रा भवन्ति ते सकृत्परिणयना एक पारं कृतविवाहा, द्वितीयं न कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा च हारीत:-वि भार्यो योऽत्र शुद्रः स्याद् पृषतः सहि विश्रुतः । महत्धं तस्य नो भाषि शुवजातिसमुद्भवः ॥" इसके सिवाय, सोनीजी ने खुद पच नं. १७६ में प्रयुक्त हुए 'पुनरुद्धाहं' का अर्थ खी का पुनर्विवाह न करके पुरुष का पुनर्विवाह मचितः किया है, जहाँ कि यह बनता ही नहीं। ऐसी हालत में मालूम नहीं फिर किम प्राधार र मापने सोमदेवनीति के उक्त वाक्य का प्राशय स्त्री के एक बार विवाह से निकाला है ! मथवा बिना किसी आधार के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy