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________________ [१९७] हो कि विवाह किस चिड़िया का नाम है-सर्वथा निषेध किया हो : एक स्थान पर तो भट्टारकजी, कुछ नियम विधान करते हुए, लिखते हैं: यस्यास्त्वनामिका ह्रस्वा तां विदुः कलहप्रियाम् । भूमि न स्पृशते यस्याः स्वादते सा पतिद्वयम् ।। ११-२४ ॥ अर्यात्--जिस स्त्री की अनामिका अँगुली छोटी हो वह कलहकारिणी होती है, और जिसकी वह अँगुली भूमि पर न टिकती हो वह अपने * दो पतियों को खाती है-उसके कम से कम दो विवाह जरूर होते हैं और वे दोनों ही विवाहित पति मर जाते हैं। भट्टारकजी के इस नियम-विधान से यह साफ जाहिर है कि जैन समाज में ऐसी भी कन्याएँ पैदा होती हैं जो अपने शारीरिक लक्षणों के कारण एक पति के मरने पर दूसरा विवाह करने के लिये मजबूर होती है-तभी वे दो पतियों को खाकर इस नियम को सार्थक कर सकती है-और एक पति के मरने पर स्त्री का जो दूसरा विवाह किया जाता है वही विधवाविवाह कहलाता है । इसलिये समाज में नहीं नहीं समाज की प्रत्येक जाति में-विधवाविवाह का होना अनिवार्य ठहरता है; क्योंकि शारीरिक लक्षणों पर किसी का वश नहीं और यह नियम समाज में पुन. विवाह की व्यवस्था को माँगता है। अन्यथा भट्टारकजी का यह नियम ही चरितार्थ नहीं हो सकता-वह निरर्थक हो जाता है । और दूसरे स्थान पर भट्टारकजी ने 'शूद्रा पुनर्विवाहमण्डने' मादि वाक्य के द्वारा यह स्पष्ट घोषण की है कि 'शुद्रा के-शूद्र जाति *महारकजीका यह दो पतियों कोवानी है'वाय-प्रयोग कितना प्रशिष्ट मार मसंयन भाषा को लिये हुए है उसे बतलाने की ज़रूरत नहीं। जब 'मुनीन्द्र' कामाने वाले ही ऐसी मर्मविदारक निन्य भाषा का प्रयोग करते हैं न किसी लड़की के विधवा होने पर उसकी सास यदि यह कहती है कि 'तूने मेरा लाख खा लिया' तो इसमें माधर्म क्या है ? पह सर विषयामों के प्रति प्रशिष्ट म्यवहार है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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