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________________ [१९६] इसके सिवाय,जो भट्टारकजी पति के दोष मालूम होजाने पर पूर्व विवाह को हो रद्द कर देते हैं, संभाग होजाने पर भी स्त्री के लिये दूसरे विवाह की योजना करते हैं, तलाक की विधि बतलाकर परित्यक्ता स्त्रियों के लिये पुनर्विवाह का मार्ग खोलते अथवा उन्हें उसकी स्वतंत्रता देते हैं, कामयज्ञ रचाने के बड़े ही पक्षपाती जान पड़ते हैं, योनिपूजा तक का उपदेश देते हैं, ऋतुकाल में भोग करने को बहुत ही आवश्यक समझते हैं, और ऋतुकाल में भोग न करने वाली स्त्रियों को तिथंच गति का पात्र ठहराते हैं-इतना अधिक जिनके सामने उस भोग का महत्व है--उनसे ऐसी आशा भी नहीं की जा सकती कि उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह का--उन नन्हीं नन्हीं बालविधवाओं के पुनर्विवाह का भी जो महज फेरों की गुनहगार हों और यह भी न जानती की दृष्टि में 'जार' दूसरा पति ( पतिरन्यः) नहीं हो सकता । वे दूसरा पति ग्रहण करने रूप पुनर्विवाह को विधिविहित और जारसे रमण को निन्ध तथा दण्डनीय ठहराते हैं । यथा: जारेण जनयेदूर्भ मृते त्यक्ते गते पतौ। ___ तां त्यजेदपरे राष्ट्रे पतितां पापकारिणीम् ॥ १०-३१ ॥ और चौथे यह बात भी नहीं कि व्याकरण से इस 'पतौ' रूप की सर्वथा सिद्धि ही न होती हो, सिद्धि भी होती है, जैसाकि अष्टा. ध्यायी के 'पतिः समास एवं' सूत्र पर की 'तत्वबोधिनी' टीका के निम्न अंश से प्रकट है, जिसमें उदाहरण भी दैवयोग से पराशरजी का उक्त श्लोक दिया है:___..."अथ कथं " सीतायाः पतये नमः" इति " नष्टे मृते प्रबजिते क्लीवे च पतिते पती। पंच स्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते” इति पराशरश्च ॥ अत्राहुः ॥ पतिरित्याख्यातः पतिः-'तत्करोति तदा चटे' इति णिचि टिलाये 'अच इः' इत्यौणादिक प्रत्यये 'णेरनिटि' इति णिलापे च निष्पोऽयं पति 'पति; समास एव' इत्यत्र न गृह्यते लाक्षणिकत्वादिति । अतः 'पती' का अर्थ 'पत्यौ' ही है। और इसलिये जो लोग उसके इस समीचीन अर्थ को बदलने का निःसार प्रयत्न करते हैं वह उनकी भूल है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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