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[१८७१ .. इस तरह पर भट्टारकजी ने स्त्रियों को त्याग या तलाक देने की यह व्यवस्था की है । दक्षिण देश की कितनी ही हिन्दू जातियों में तलाक की प्रथा प्रचलित है और कुछ पुनर्विवाह वाली जनजातियों में भी उसका रिवाज है; जैसा कि १ ली फरवरी सन् १९२८ के जैनजगत्' अंक नं० ११ से प्रकट है । मालूम होता है भट्टारकजी ने उसीको यहाँ अपनाया है और अपनी इस योजनाद्वारा संपूर्ण जैनसमाज में उसे प्रचारित करना चाहा है। भट्टारकजी का यह प्रयत्न कितना निन्दित है और उनकी उक्त व्यवस्था कितनी दोषपूर्ण, एकांगी तथा न्याय-नियमों के विरुद्ध है उसे बतलाने की जरूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं । हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि जिस स्त्री को त्याग या तलाक़ दिया जाता है वह, वैवाहिक सम्बन्ध के विच्छेद होने से, अपना पुनर्विवाह करने के लिये स्वतंत्र होती है। और इसलिये यह भी कहना चाहिये कि भट्टारकंजी ने अपनी इस व्यवस्था के द्वारा ऐसी 'त्यता' स्त्रियों को अपने पति की जीवितावस्था में पुनर्विवाह करने की भी स्वतंत्रता या परवानगी दी है !! अस्तु, पुनर्विवाह के सम्बन्ध में भट्टारकजी ने
और भी कुछ आज्ञाएँ जारी की हैं जिनका प्रदर्शन अभी आग 'स्त्री-पुनविवाह' नाम के एक स्वतंत्र शीर्षक के नीचे किया जायगा ।
स्त्री-पुनर्विवाह । (२७)'तलाक' की व्यवस्था देकर उसके फलस्वरूप परित्यक्ता स्त्रियोंको पुनविवाह की स्वतन्त्रता देने वाले भट्टारकजी ने,कुछ हालतों में,अपरित्यक्ता स्त्रियों के लिये भी पुनर्विवाहकी व्यवस्थाकी है,जिसका खुलासा* इस प्रकार है:
* यद्यपि इस विषय में भट्टारकजी के व्यवस्था चाक्य बहुत कुछ स्प है फिर भी चूंकि.स त्रिवर्णाचार के भक्त कुछ पंडितों ने, उन्हें अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल न पाकर अथवा ग्रंथ के प्रचार में विशेष बाधक समझकर उन पर पर्दा डालने की जघन्य चेष्टा की है-प्रतः यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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