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ग्यारहवें अध्याय में भट्टारकजी ने, वाग्दान प्रदान, वरण, पाणिग्रहण और सप्तपदी को विवाह के पाँच अंग बतलाकर, उनकी क्रमशः सामान्यविधि बतलाई है और फिर 'विशेषविधि' दी है. जो अंकुरं पया से प्रारम्भ होकर 'मनोरथाः सन्तु' नामक उस आशीर्वाद पर समाप्त होती है जो ससपदी के बाद पूर्णाहुति आदि के भी अनन्तर दिया हुआ है | इसके पश्चात् उन्होंने हिन्दुओं के 'चतुर्थी कर्म' को अपनाने का उपक्रम किया है और उसे कुछ जैन का रूप दिया है। चतुर्थी-कर्म विवाह की चतुर्थ रात्रि के कृत्य को कहते हैं । हिन्दुओं के यहाँ वह विवाह का एक देश अथवा अंग माना जाता है । चतुर्थी -कर्म से पहले वे स्त्री को 'भार्या' संज्ञा ही नहीं देते । उनके मतानुसार दान के समय तक 'कन्या', दान के अनन्तर 'वधू', पाणिग्रहण हो जाने पर 'पत्नी' और चतुर्थी - कर्म के पश्चात् 'भार्या' संज्ञा की प्रवृत्ति होती है । इसी से वे भार्या को 'चातुर्थ कर्मणी' कहते हैं, जैसा कि मिश्र निबाहूराम विरचित उनके विवादपद्धति के निम्न वाक्यों से प्रकट है: --
चतुर्थी कर्मणः प्राक् तस्या भार्यत्वमेव न संप्रवृत्तम् । विवाईक दे शत्वाच्चतुर्थी कर्मणः । इति सूत्रार्थः । तस्माद्भार्यां खातुकर्मणीति मुनिवचनात् । “श्याप्रदानात् भवेत्कम्या प्रदानानन्तरं वधूः ॥ पाणिग्रहं तु पत्नी स्याद्मायां चतुर्थ कर्मणीति ॥"
और इसीलिये उनकी विवाहपुस्तकों में 'चतुर्थीकर्म' का पाठ लगा रहता है जो 'ततश्चतुर्थ्यामपररात्रे चतुर्थी कर्म' इस प्रकार के
पर उनका कुछ विशेष खुलामाश्रथना स्पष्टीकरण कर देना है। उचित तथा ज़रूरी मालूम हुवा है । उसीमे यह उसका प्रयत्न किया जाना है I
* वामन शिवराम ऐट के कोश में भी ऐसा ही लिखा है । यथा:"The Ceremonies to be performed on the fourth night of the marriage " और इससे 'चतुर्थी' का अर्थ होता है The fourth night of the marriage विवाह की चतुर्थ रात्रि !
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