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________________ अम्बे तत्वरसतुचन्द्रकलिते श्रीविक्रमादित्यजे माले कार्तिकनाममीह धषले पक्षे शरसंभवे । वारेभास्वति सिद्धनामनि तथा योगेसुपूर्णातिथौ । । नक्षत्रेऽश्विनिनानि धर्मरसिको ग्रन्यश्च पूर्णीकृतः ॥२१७n अर्थातू-यह धर्म रसिक ग्रंथ विक्रम सं० १६६५ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को रविवार के दिन सिद्ध योग और अश्विनी नक्षत्र में बनाकर पूर्ण किया गया है। इस ग्रंथ के पहले अध्याय में एक प्रतिज्ञा-वाक्य निम्न प्रकार से दिया हुअा है यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः सामन्तभद्रम्तथा: सिद्धान्तेगुणभद्रमाममुनिभिर्भट्टाकलंकैः परैः श्रीसूरिद्विजनामधेय विबुधैराशाधरैर्वाग्वर स्तदृष्ट्या रचयामि धर्मरसिकंशास्त्रंत्रिवर्णात्मकम् ॥६॥ अर्थात्-जिनसेनगणी, समंतभद्राचार्य, गुणभद्रमुनि, भट्टाकलंक, विबुध ब्रह्मसूरि और पं० आशावर ने अपने २ ग्रंथों में जो कुछ कहा है उसे देखकर मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नाम के तीन वर्षों का प्राचार बतलाने वाला यह 'धर्मरसिक' नामका शास्त्र रचता हूँ। ग्रंथ के शुरू में इस प्रतिज्ञा वाक्य को देखते ही यह मालूम होने लगता है कि इस ग्रंथ में जो कुछ भी कथन किया गया है वह सब उक्त विद्वानों के ही बचनानुसार-उनके ही ग्रंथों को देखकर-किया गया है। परन्तु ग्रंथके कुछ पत्र पलटने पर उसमें एक जगह ज्ञानार्णव ग्रंथ के अनुसार, जो कि शुभचंद्राचार्य का बनाया हुआ है, ध्यान का कथन करने की और दूसरी जगह भट्टारक एकसंधि कृत संहिता (जिनसंहिता) के अनुसार होमकुण्डों का लक्षण कयन करने की प्रतिज्ञाएँ भी पाई जाती हैं । यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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