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________________ [१४६ इसमें सन्देह नहीं कि ग्रंथ में उनके इस विधान से सूतक की भीति और भी ज्यादा अस्थिर हो जाती है और उससे सूतक की विडम्बना बढ़ जाती है अथवा यो कहिये कि उसकी गिट्टी खराब हो जाती है और कुछ मूल्य नहीं रहता । साथ ही, यह मालूम होने लगता है कि 'बह अपनी वर्तमान स्थिति में महज़ काल्पनिक है; उसका मानना न मानना समय की जरूरत, लोकस्पिति अथवा अपनी परिस्थिति पर भवलम्बित है-लोक का वातावरण बदल जाने अथवा अपनी किसी बास जरूरत के खड़े हो जाने पर उसमें यथेच्छ परिवर्तन ही नहीं किया जा सकता बल्कि उसे साफ धता भी बतलाया जा सकता है; वास्तविक धर्म अथवा धार्मिक तत्वों के साथ उसका कोई खास सम्बंध नहीं है-उसको उस रूप में न मानते हुए भी पूजा, दान, तथा स्वाध्यायादिक धर्मकृत्यों का अनुष्ठान किया जा सकता है और उससे किसी अनिष्ट फल की सम्भावना नहीं हो सकती। चुनाँचे भरत चक्रवर्ती ने. पुत्रोत्पति के कारण घर में सूतक होते हुए भी, भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान उत्पन्न होने का शुभ समाचार पाकर उनके समवसरण में जाकर उनका साक्षात् पूजन किया था, और वह पूजन भी अकेले अथषा चुपचाप नहीं किन्तु बड़ी धूमधाम के साथ अपने भाइयों, खियों तथा पुरजनों को साथ लेकर किया था। उन्हें ऐसा करने से कोई पाप नहीं लगा और न उसके कारण कोई अनिष्ट ही संघटित हुआ । प्रत्युत इसके, शास्त्र में-भगवजिनसेनप्रणीत भादिपुराण में उनके इस सद्विचार तथा पुण्योपार्जन के कार्य की प्रशंसा ही की गई है जो उन्होंने पुत्रोत्पत्ति के उत्सव को भी गौण करके पहले भगवान का पूजन किया । भरतजी के मस्तक में उस वक्त इस प्रकार की किसी कल्पना का उदय तक भी नहीं हुआ कि 'पुत्रजन्म के योग मात्र से हम सब कुटुम्बीनन, सूतक गृह में प्रवेश न करते हुए भी, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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