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[ १५०] अपवित्र हो गये हैं-कुछ दिन तक बलात् अपवित्र ही रहेंगे- और इस लिये हमें भगवान् का पूजन न करना चाहिये;' वल्कि वे कुछ देर तक सिर्फ इतना ही सोचत रहे कि एक साथ उपस्थित हुए इन कार्यों में से पहले कौनसा कार्य करना चाहिये और अन्त को उन्होंने यही निश्चय किया कि यह सब पुत्रोत्पत्ति आदि शुभ फल धर्म का ही फल है, इस लिये सब से पहिले देवपूजा रूप धर्म कार्य ही करना चाहिये जो श्रेयो. नुबन्धी ( कल्याणकारी ) तथा महाफल का दाता है । और तदनुसार ही उन्होंने, सूतकावस्था में, पहले भगवान का पूजन किया+| भरतजी यह भी जानते थे कि उनके भगवान् वीतराग हैं, परम पवित्र और पतितपावन हैं; यदि कोई शरीर से अपवित्र मनुष्य उनकी उपासना करता है तो वे उससे नाखुश ( अप्रसन्न ) नहीं होते और न उसके शरीर की छाया पड़ जाने अथवा वायु लग जाने से अपवित्र ही हो जाते हैं, बल्कि वह मनुष्य ही उनके पवित्र गुणों की स्मृति के योग से स्वयं पवित्र हो जाता है * । इससे भरतजी को अपनी सूतकावस्था की कुछ चिंता भी नहीं थी। _मालूम होता है ऐसे ही कुछ कारणों से जैन धर्म में सूतकाचरण को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । उसका श्रावकों की उन ५३ क्रियाओं में नाम तक भी नहीं है जिनका आदिपुराण में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है और जिन्हें 'सम्यक क्रियाएँ' लिखा है,
+ देखो उक्त प्रादिपुराण का २४ वाँ पर्व । * नित्य की 'देवपूजा' में भी ऐसा ही भाव व्यक्त किया गया है और उस अपवित्र मनुष्य को तब बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार से पवित्र माना है । यथा:
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा। .. यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥
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